मन का कोलाहल (स्त्री)
ऊपर पत्थर अंदर नर्म हृदय हूँ मैं
पंचतत्वों से उपजी एक नारी हूँ मैं
गगरी भीतर पानी, बाहर ज्वाला सी हूँ मैं
हर धर्म में सराही जाती, हर धर्म का
खिलवाड़ भी बन जाती हूँ मैं।
अंत्येष्टि से दूर रखा जाता कोमल समझ
पर हर इंसान की जन्मदाता मैं ही हूँ।
अनूठी है मेरी देह संरचना
इसी संरचना के कारण कभी सती हुई,
कभी पर्दे में रही, तो कभी बलात्कार कर
जलाई गई।
पर उफ़ तक न कि मैंने
शायद यही वजह रहीे कि
मैं दोयमदर्जे की नागरिक हो गई
देवी स्वरूपा होकर भी।
बहुत विदुषी हूँ मैं
सनातन धर्म की पुजारन हूँ मैं
मुझे भस्म न कर पाओगे
चंदन की लकड़ी में दबा मेरा अस्तित्व
न मिटा पाओगे
मैंने केंचुली उतार फेंकी है
अब मेरा सामना न कर पाओगे
मैं आज की नारी हूँ
मुझे फिर एक नया इतिहास लिखना है
मुझे राख में न दबा पाओगे
हाँ! जिसे मैंने ही जन्म दिया
तुम पुरुष!
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