उर्वशी 3
रंगशाला के सारे रंग में नहाकर
उर्वशी पहुंची तपस्वी के पास
मदमस्त नयनों से इशारा करती
अटखेलियां करती
अजंता के नर्तकों सी नृत्य करती
लगी तपस्वी को रिझाने
कभी कोयल सी गाती
कभी बनमाला सी हंसती
तो कभी राधिका बन जाती
लगी मंदाकनी बन तपस्वी को रिझाने।
पके गेंहू के बालियों सा तपस्वी
फ़कीरी लिबास में लिपटा
खोया था प्रभु के सुमिरन में
न देखा उसने न सुना उसने उर्वशी को
तपस्या करते-करते घास का एक तिनका उठा
लगा उर्वशी श्राप देने
पर जैसे ही आंखे खोली
मंत्रमुग्ध हो गया
सम्मोहित हो गया
रहा न कुछ और ख़्याल उसको
बहक गया उर्वशी संग वो।
सारी तपस्या धरि रह गई
जब अप्सरा मिली उसको।।
हमारे यहाँ आज भी ऐसा ही होता है
हम अक्सर अपने पथ से भटक जाते है,
भोग-विलास में लिप्त हो अपना जीवन
नष्ट कर लेते है।
हमें हर चीज में सामन्जयस करना आना चाहिए।
जैसे बरखा की बूंदे बदन भी भिगोती है और सुखी जमीं भी सींचती है।
जहाँ जैसी जरूरत वहाँ वैसी होती है।
हमें भी बस बरखा की बूंदों सा होना चाहिए।
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