पीड़ा कैसी भी हो, आँखों के कोरो पर नमी आ ही जाती है। दिल का दर्द जबां से निकल ही जाता है। गहरा अनुभव श्वेत हो ही जाता है। अपनी ही बर्बादी का जश्न कैसा? चित्कार स्वभाविक है। अशांत वातावरण में, अनिश्चितता आयेगी ही। मदिरालय की मदिरा से जिस्म बहकता है, अंगारे में जल राख होता है। तेजाब में जल स्वाहा होता है। बेरंग झील में यक़ी का खून हुआ हो तो, शहर भर में काले-बादलों का शोर गूंजेगा ही। आत्मीयतता ले डूबी, अब बाढ़ में मिट्टी कटेगी ही। संवेदना का जहर पियो तो, सच्चाई जाऱ-जाऱ रोयेगी ही। पत्थर पर सर पटक-पटक मर जाओ, आस्था चुप कराने भी न आयेगी। पथरीले, बोझील, नाउम्मीदी सफ़र में, ख्यालों में भी मंजिल के दर्शन कहा हो पाते है। बंजर ज़मी में लहू सींच दो, वृक्षों का जमघट कहाँ लग पता है। पीड़ा कैसी भी हो, आँखों के रास्ते बाहर फैल ही जाती है। दर्द का मंजर समेटे, काले बादलों में मिल, बाढ़ ले ही आती है। ले ही आती है!!!
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