परछाई.........!!!

अब अक्सर सोचती हूँ,
तुम्हारा मेरा रिश्ता क्या था।
शायद कुछ नहीं।
तभी तो मेरे बदन में दर्द की गांठे बुन,
पलकों पर अश्रुधार छोड़ कर चले गए।
मेरा अस्तित्व ऐसा नहीं था।
जो तुमनें कर दिया।
मेरी किताब के पन्नों पर,
तुमनें गीली..मोतियों की माला सजा दी।
मैं पता नहीं किस मिट्टी की बनी हूँ,
जो आँधियों में रेत सा उड़ा देता है,
उसे ही संवारने लग जाती हूँ।
प्रेम की डोरी में रूह के मोती पिरो देती हूँ।
पता नहीं किसे संजो रही हूँ,
खुद को या उसे जो सब जानकर अंजान है।
जिस्मों का सौदागर, मेरी रूह का तलबगार है।
या उसे जो मेरा कान्हा जैसा है।
वो भरी बरसात में रुलाता है,
जो रोऊ तो आंखे दिखाता है।
मेरे लबों की हँसी छीन,
मुझे हँसाने की कोशिशों में लगा रहता है।
पर अब ये आंसू मेरे संगी-साथी,
मेरी हँसी में भी मेरा पीछा नहीं छोड़ते,
हमेशा मेरा साथ निभाते है।
मेरी परछाई बनकर,
मेरे अपने बनकर!!!














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