भारतीय समाज, भारतीय मानसिकता में बदलाव तो आ रहा है। लेकिन.. अपनी आधी आबादी को बराबरी का दर्जा देने में अब भी संकोच है। हम कानूनी लड़ाई तो जीत लेते है लेकिन अपने अंदर का डर नहीं मार पाते। सदियों से दिमाग में घुसे धर्म और ईश्वर के डर ने महिला के स्वतंत्र सोच को पनपने ही नहीं दिया। फिर चाहे.. सबरीमाला मंदिर हो, या महिला अधिकार से जुड़ा कोई और मामला स्त्री देह से बाहर नहीं निकल पाती। ज़रा ग़ौर करें जिस देह से सभी जन्म लेते है वो अपवित्र कैसे हो गई। अगर वो इतनी ही अपवित्र है तो अपने जन्म का कोई और उपाय सोचना चाहिए पुरुषों को क्योंकि पुरुष आज भी दोहरी मानसिकता लिए जीता है। एक तरफ स्त्री महान तो दूसरी तरफ अपवित्र, भोग- विलास की वस्तु अलग। संसार का कोई भी धर्म स्त्री को पुरुष के बराबर नहीं मानता। क्या सिर्फ देह ही स्त्री का सामाजिक, प्राकृतिक, और सांस्कृतिक सत्य है। पुरुष प्रधान समाज को मर्दवादी मानसिकता, धार्मिक मान्यताओं, रीति-रिवाजों, मनु स्मृतियों से खाद-पानी मिलता रहता है। स्त्री को चुप रहने की हिदायत दी जाती है। मी टू भी इसी हासिये पर बलि चढ़ गया भारत हो या अमेरिका स्र...