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सुनों तुम ऐसे तो न थे??

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सुनो तुम ऐसे तो न थे? शांत धरती पर चीड़ के पेड़ जैसे... आसमां में फैली धूप जैसे... शरीर एक किरदार अनेक है तुम्हारे। मकई के खेत में उगे सिट्टे जैसे... सुनो तुम ऐसे तो न थे? अपनी परिधि में घूमते रेत जैसे... गहरे पानी में पत्थर जैसे... तलहटी में उगे निर्जीव फूल जैसे... कितने बदल गए हो तुम? तुम्हारी वो हँसी कहाँ खो गई? तुम्हारी वो शरारते कहाँ खो गई? मेरी पुस्तक के तुम सजीव चित्रण थे। मेरी कहानी के तुम अहम किरदार थे। मेरे विचारों में तुम आत्मा थे। न जाने कहाँ खो गए तुम? इस आधी-अधूरी जिन्दगी में, अब कहाँ ढूँढू तुम्हें? मेरे इर्द-गिर्द ही हो तुम, पर अब पहले जैसे नहीं हो तुम, सुनों तुम ऐसे तो न थे??

ऐ रंगरेंज

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ऐ रंगरेज़... मेरे दिल को न रंगना अपने रंगों के घोल में मुझकों न डुबोना। तेरे शहर में मेरा ठिकाना नहीं है। तेरे सपनों में मेरा काजल नहीं है। ऐ रंगरेज़... मेरे अणु ठोस है। तेरे रंगों को सलीका नहीं, मेरी कालीन में पैबंद बहुत है। तेरी बुनाई में जटिलता बहुत है। ऐ रंगरेज़.... मेरा मोल न लगाना अपने मूल्यों की वृद्धि न करना, प्राकृतिक रंगों को ही स्पष्ट रखना। ऐ रंगरेज़... नीला रंग आसमां में उड़ा देना.. लाल रंग फूलों में भर देना.. हरा धरती के आंगन में बिछा देना.. पीला मेरी चुनर में जड़ देना.. सफेद तेरे-मेरे विश्वास का.. बस अपनी आत्मा में भर लेना.. देह को रंगना.. पर शोर न करना.. हया की लाली.. मेरे मुख पर भर देना.. मेरे दस्तावेजों में.. अपनी रंगीन छवि छुपा देना.. मेरे परिवर्तन में.. मौसमो का हाल सुना देना!!