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दस्तक...!!!

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तुम्हें पता है अपनी हदें.. मुझे पता है अपनी हदें.. तू दस्तक है, मैं बंद किवाड़ों सी। तुम्हारा निश्चल प्रेम.. मेरा अश्रुपूर्ण प्रेम.. उलझ गए एक दूसरे में। न जाने तुम कब जीवन में आ गए कुछ पता न चला। भोर की वेला में किरण बिखेरते रश्मियों को गले लगाते, मेरे मन को भा गए। तुम्हारा स्नेह भरा निमंत्रण अस्वीकार न कर पाई। तुम सांसो में उलझे.. मैं तुम्हारी वाणी में उलझी। तुम्हें आंखों में बंद किये होंठो पर चुप हो गई। तुम चंदन लाये.. मैं सुगंध महसूस कर न पाई। मेरा प्रेम हृदय पिघलाता है। तुम मेरे भाग्य की छुपी रेखा में विराजमान थे। मैं ये जान न पाई। मुझे तो कुछ भी न चाहिए था। तुम कैसे आ गए पहचान न पाई। मेरी दहलीज़ पर मौन क्यों खड़े हो। अब दिल का दरवाजा खोल दिया है। सिर्फ तुम्हारे लिए। अब यूँ ही बने रहना मेरे वजूद के इर्द-गिर्द मंडराते रहना सदैव!!

जीवन राग....!!!

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चाँदी सी चमकती भोर में जैसे परिन्दें उड़ते है। वैसे ही उड़ जाना है। खुले आसमान में। आत्मा का लिबास भी अब बदलना है। गंगा में नहा नया चोला पहनना है। फीके उत्सव अब अमावश के हवाले कर पूनम के चाँद के समीप सोना है। किले में पहरे बहुत है, पीली सरसों में बहती पुरवाई संग उड़ना है। ठुकरा दिए सभी निमंत्रण अब खुद की परतों को समझना है। जीवन राग समझ नहीं आता। खारा दरिया मन लुभाता है। झुलसा जीवन मौन होना चाहता है। संगम की लहरों में बह जाना चाहता है। सुबह सूरज के हस्ताक्षर शाम को चाँद का इंतजार रात को तारों संग बातें ये कैसा कुंभ है। जहाँ डूबना तय है। बचेगा कुछ नहीं। सिवाय मौन के!!

अंतर्द्वंद....

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पैरों में पड़ी बेड़िया हृदय करे चीत्कार सुने न कोय। रूप की चंचला भीगे आँसुअण में, सुने न कोय। गुड़हल लाली आंगन फैली मेघ गरजे बिजुरी चमके शीत लहर चुभ-चुभ जाय। अंतर्द्वंद मन का सुने न कोय। मन का मेघ घुमड़-घुमड़ नयनों से बरस जाय।।