डाकू

पढ़िए एक गहरी बात कहती हुई लघुकथा।
डाकू......

जवानी के दिनों में मैं पहाड़ियों के पार एक संत से मिलने गया था। हम सद्गुणों के स्वरूप पर बातचीत कर रहे थे कि एक डाकू लड़खड़ाता हुआ टीले पर आया। कुटिया पर आते ही वह संत के आगे घुटनों के बल झुक गया और बोला, 'महाराज मैं बहुत बड़ा पापी हूं।'
संत ने उत्तर दिया,  'मैं भी बहुत बड़ा पापी हूं।'
डाकू ने कहा,  'मैं चोर और लुटेरा हूं।'
संत ने कहा,  'मैं भी चोर और लुटेरा हूं।'
डाकू ने कहा,  'मैंने बहुत-से लोगों का कत्ल किया है,
उनकी चीख़-पुकार मेरे कानों में बजती रहती है।'
संत ने भी उत्तर दिया,  'मैं भी एक हत्यारा हूं, जिनको मैंने मारा है, उन लोगों की चीख़-पुकार हमेशा मेरे कानों में भी बजती रहती है।'
फिर डाकू ने कहा,  'मैंने असंख्य अपराध किये है।'
संत ने कहा,  'मैंने भी असंख्य अपराध किये है।'

डाकू उठ खड़ा हुआ और टकटकी लगाकर संत की तरफ देखने लगा। उसकी आँखों में विचित्र भाव थे।
लौटते समय वह उछलता-कूदता पहाड़ी से उतर रहा था।

मैंने संत से पूछा, 'आपने झुठ-मुठ में खुद को अपराधी क्यों कहा? आपने देखा नहीं कि जाते समय उस आदमी की आस्था आपमें नहीं रही थी।'
संत ने उत्तर दिया, 'यह ठीक है कि अब उसकी आस्था मुझमें नहीं थी पर वह यहां से बहुत निशचिंत होकर गया गया है।'
तभी दूर से डाकू के गाने की आवाज हमारे कानों में पड़ी।
उसके गीत की गूंज ने घाटी को ख़ुशी से भर दिया था।

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