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जनवरी, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

नारी (स्त्री)

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  कितनी सीधी सरल हो तुम... खूंटे से बंधी गऊ सी हो तुम? आंगन में बंधी बाड़े की धूल सी हो तुम? सच गऊ जैसी हो तुम! क्या सच में गऊ सी हो तुम?? मौन-मूक पशु हो तुम?? पर सुनो क्या आज की दुनिया में गऊ सी होना कलंक नहीं है? घर-बाहर बेइज्जती का गहना नहीं है ये? तुम गऊ हो! मतलब पशु?? क्या तुम सीधी सरल इंसान हो?? या सीधी सरल मौन मूक पशु हो?? बोलो न  तुम क्या हो??

आओ चाँद सूरज की सताते है...!!

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  आओ चाँद, बातें करते है, सूरज की खिंचाई करते है। रात में बूढ़ी माँ से इसकी  शिकायत करते है। दूध-बताशे की जगह इसे बर्फ का गोला खिलाते है। आधी रात इसे उठाकर बादलों की सैर कराते है। सुबह दूर पहाड़ी के पीछे धुंध में इसे छिपाते है। आओ चाँद इसे ओस का काढ़ा पिलाते है। कोहरे का वस्त्र पहनाते है। इसने सबको बहुत सताया है। इस ठंडी में कभी दिखता है, कभी भाग जाता है। इस सर्दी में ये हमसे आँख-मिचौली करता है। हमें छुपकर सताता है।

निज मन (स्मृति)

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  स्मृति की अंनत यात्रा पर निकली हूँ। बुनियादी सवालों से उलझी एक सतत यात्रा पर निकली हूँ। स्मृति की नदी में हौले-हौले डूबना-उतरना अच्छा लगता है। इस बलखाती नदी में डूबकर नहाना अच्छा लगता है। स्मृति की नदी में कई धाराएं जुड़ी होती है। स्मृति बिता हुआ कल होती है। स्मृति भोगा हुआ यथार्त होती है।