व्यथा स्त्री मन की

 
            यौवन की दहलीज पर कदम रखते ही मै ब्याह दी गई
और मेरे ब्याहता बनते ही मेरी खुशिया सीमित कर दी गई
ये कहकर कि ये सब अब तुम्हे शोभा नहीं देता।
पर मै चुप रही ये सोचकर की यही मेरी नियति है।
तुम्हारी बिना सिर पैर की बातों को सुनकर भी मै विचलित नहीं हुई।
तुम्हे खुश करने का प्रयास करती रही हर पल।
ये सोचकर कि यही तो मेरा पत्नी धर्म है जो सबने मुझे समझाया है।
तुमने मेरी भावनाओ का भी मज़ाक उड़ाया मेरी आँखों में नमी देखकर।
तुमने मुझे हर उस पल रुलाया जब मैने तुमसे हमदर्दी की उम्मीद की।
तुम्हारी नज़रो में मैं सिर्फ खाना बनाने वाली और तुम्हारे बच्चो को पैदा करने वाली हूँ।
और समाज में एक अच्छी पत्नी वही होती है जो अपनी इच्छाओं को दबाकर अपने पति के पीछे पीछे चुपचाप चले और मुस्कुराती रहे।
और अगर वो इन सबके विरुद्ध चले तो लोग उसे न जाने किस किस उपनामो से नवाज़ते है।
तुम सबने मुझे इतना कमज़ोर न जाने कैसे समझ लिया।
शायद मेरे हर बात में भावुक होकर रोने से,
पर मैं कमजोर नहीं हूँ।
बस मुझमे एक कमी हैं कि मैं किसी को भी रोता हुआ नहीं देख सकती हूँ।
सबको साथ लेकर चलना चाहती हूँ।
औरत हूँ न इसलिए !!!
            कल किसी ने मुझसे पूछा.........
            तुम्हारी पहचान क्या है..........।।
            तो मैंने कहा.........
            सिर्फ इतनी की मैं एक स्त्री हूँ....................
            मैं मानव का निर्माण करती हूँ..............................
            और मैं नहीं तो तुम भी नहीं....................!!!!!!!!

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