अल्फाज़.......

 रोज कागज़ पे जज़्बात लिखती हूँ,
अश्क़ो में भीगे अल्फ़ाज़ लिखती हूँ,
पढ़ के कहते है सब क्या गज़ल लिखती हूँ,
अरे इन कागज़ के पन्नों से पूछो कि ये कब
गीले होते है। कब सूखे होते है।
ये तो हमेशा गाढ़े खून में भीगे होते है।
जो ये उतरते है। कोरे पन्नों पर तो कभी
सूखे अश्क़ लगते है, तो कभी गीले अश्क़
लगते है। न पूछो से कैसे अश्क़ लगते है,
ये तो भरी बरसात में टूटे पत्तो पर ठहरे
अश्क़ लगते है।
वो और उसके अश्क़....
कभी गीले कभी सूखे
कभी आँखों के कोरो से बहकर
तकिये का कोना गिला करते है
तो कभी बिन बादल बरस कर उसके
आंचल में पनाह पा सो जाते है।
न उसके अश्क़ सूखते है,
न उसके जज़्बात,
न उसके शब्द सूखते है,
न उसके अल्फाज़,
वो टूटी है। दर्द में भीगी है।
कोरे पन्नों पर नीली स्याही संग
बिखर कर वही टेबल पर सर
रख कर सो रही है।
वो कभी मकड़ी के जालों में लिपटी कविताएं
लिखती है। तो कभी उल्फ़त के फसानों में
लिपटी रचनाएं।
कभी माखन में लिपटे राधा-कान्हा।
कान्हा उसकी जिंदगी का अनमोल हीरा,
कान्हा उसकी जिंदगी का धुप-छाव,
कान्हा उसकी जिंदगी का सतरंगी इंद्रधनुष,
कान्हा उसकी जिंदगी का अमृत,
कान्हा उसकी जिंदगी का सुकून,
कान्हा उसकी जिंदगी का सब-कुछ,
फिर भी वो और उसके अल्फाज़.....
कभी अंदर से गीले,
कभी ऊपर से सूखे
कभी महोब्बत में पके,
कभी बैचनी में उलझे,
कभी नज़रो में ठहरे,
कभी पवन में बहे,
कभी बारिश में मचले,
कभी बंजर ज़मी में
दफ़्न हो सो जाए,
वो और उसके अल्फाज़......
कभी बदन में फोड़े से रिस्ते है,
कभी नंगे पाव में काँटे से चुभते है,
कभी गले की खराश में घुटते है,
कभी अश्क़ो संग बह कर पूरे बदन
को खारा करते है।
वो अंदर से गीली है।
ऊपर से सूखी है।
क्या वो सुखी है।???










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