कभी तो सोचिए

बासी रोटी गले मे ठूंस चल पड़े
शाम की रोटी के जुगाड़ में।
भूख क्या है उस बच्चे से पूछिए
जो भूखा ढाबे वाले के यहाँ काम करता है।
अमीरों को भूख नही लगती और
गरीबों को दो वक्त की रोटी भी ठीक से
नसीब नहीं होती।
हमेशा ऊपर की तरफ न देखिए,
कभी जमीं पर चलते पैरों को भी देखिए।
झुलसाती धूप, हाड़ कंपाती सर्दी, आंधी-तूफान में
जब गरीब के सिर पर छत नहीं होती है तो
सोचिए उसका क्या हाल होता होगा।
खुद में इतने न खो जाइये कि
कोई और नजर ही न आये।
ऊर्जा से ऊर्जा जुड़ती है।
इंसान से इंसान।
इसलिए कभी किसी जरूरत मंद को भी
गले से लगाइए।
मृत्यु आने से पहले
क्षणभंगुर जीवन को किसी नेक काम
में जरूर लगाइए।
याद कीजिये बचपन की वो बातें
जब दरवाजे पर आए किसी भिखारी को
माँ के कहने पर रोटी दे आते थे।
कितना सुकून मिलता था उस वक्त
आत्मिक शांति मिलती थी।
शहरों के बंद कमरों में तो सिर्फ
व्यंजन होते है।
आत्मिक शांति नदारद होती है।
शहरों में तो सिर्फ सहूलियत का ख्याल
रखा जाता है।
पैसों का हिसाब रखा जाता है।
तमाशा ऐ जिंदगी का बखान किया जाता है।
जो आ जाये थोड़ा सा भी दर्द तो
सरेआम किया जाता है।
अच्छे बुरे का फर्क कीजिये।
संवेदना महसूस कीजिये।
वक्त के न आगे चलिए,
वक्त के न पीछे चलिए,
वक्त को पकड़ वक्त के साथ-साथ चलिए।
मौजूदा हालात का जायजा ले
एक सच्चे इंसान के जैसे चलिए!!






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