कठपुतली
लेशमात्र भी हैरानी नहीं, अक्सर यही स्थान होता है औरतों का अपने ही घरौंदे में।
देव-प्रतिमा से लेकर देव-कलश तक में सराही जाती है,
पर खुद के फैसले तक नहीं ले पाती अपने ही घरौंदे में।
क्यों संदेह के घेरे में उसकी आंखे हमेशा डबडबाई रहती है?
बचपन से लेकर बुढ़ापे तक आंखे गड़ाई रहती है कब उसका जीवन सुधरेगा?
वंश वृद्धि की डोर थामे क्यों अपनी ही डोर नहीं थाम पाती वो?
प्रफुल्लित करती सबको खुद हँसती भी है डर-डर कर इस जीवन में वो क्यों?
क्यों गर्म संदूक में चिर निंद्रा चाहती है वो, मुट्ठी भर खुशियों की चाहत में तड़पती है वो?
क्यों कर्तव्य निभाते-निभाते कठपुतली बन चुकी? अब शेष जीवन आजाद होना चाहती है वो।
क्यों जरूरत की जिंदगी में जरूरी नहीं रही वो?
नम्रता में जीवन गवां चुकी, क्रोध में जीवन जला बैठी वो।
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