डर के आगे जीत है

मुश्किलें रही को आसान लगी कुछ रास्ता तय करने पर
कुछ दूर जाकर वो रुका अपनी थकान मिटाने को और
एक चाय की दुकान पर चाय पी
फिर उसने सोचा
मेरी मुश्किलों की वजह तो मैं खुद था । मेरा डर था
डर भी कैसा जिन्हें मैं जानता तक नहीं बस उनकी परवाह कि
लोग क्या कहेंगे ??
एक खतरनाक सत्य यह भी है । कि अगर हम रस्ते पर चल रहे है। और हमें वहाँ दो मूर्तियाँ पड़ी मिले एक राम की और एक रावण की
तो हम राम की ही मूर्ति ही उठायेगे और घर चले जायेंगे
क्योंकि राम सत्य है एक निष्ठा है ।
राम सकारात्मकता का प्रतीक है । और रावण नकारात्मकता का। लेकिन अगर हम रस्ते पर चल रहे है। और हमें दो मूर्तियाँ मिले एक राम की और एक रावण की पर रावण की मूर्ति सोने की हो तो हम रावण की मूर्ति उठाकर घर ले जाएंगे
क्योंकि वो सोने की है। है न....
मतलब हम सत्य और असत्य
सकारात्मकता और नकारात्मकता
अपनी सुविधा के अनुसार तय करते है।
25 साल की उम्र तक हमें ये परवाह बहुत कम होती है कि लोग क्या कहेंगे
50 साल की उम्र तक एक डर में जीते है कि लोग क्या सोचेगे
50 साल के बाद पता चलता है कि हमारे बारे में कोई कुछ नहीं सोचता है। और सोचना चाहता भी नहीं
लोगो का क्या है। वो तो कुछ न कुछ कहेगे ही
हमें अपना रास्ता खुद तय करना है। बिना ये सोचे कि लोग क्या कहेंगे
हमें बस खुद पर यकीन रखना है। और अपनी मंजिल की तरफ बढ़ते जाना है











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