विचारों का आहता
इन खुशियों की क़ीमत क्या है,
बस थोड़ा सा अपनापन ।
जो मिलता नहीं अब कही भी,
और अगर मिल भी जाये क़िस्मत से,
तो उस पर खोखली महोब्बत की चासनी चढ़ी होती है,
जो हमें बर्बाद करती है। होले-होल !!
अब मुझ पर किसी बात का असर नहीं होता।
न चांदनी तड़पती है, न सूरज जलाता है,।
बस जिन्दगी की दौड़ में,
आंखे रोती है, होंठ हँसते है, दिल खोता है,
और जिस्म , अपनी रफ़्तार से चलता है !!
ये तो महोब्बत का उसूल है।
यहाँ हर शक्श मजबूर है।
किसी को सूरत पसंद है, किसी को सीरत,
और जहाँ दोनों हो वहाँ सिर्फ बहस होती है।
और शादी पर समझौता होता है।
और फिर थोड़े दिनों के बाद दोनों का रास्ता
अपने -अपने घर को जाता है !!
महानता सिर्फ किताबो में अच्छी लगती है।
रोज़ तो वही रोटी दाल अच्छी लगती है।
अक्सर कब्रिस्तान से पास से गुजरते हुए
मन में वैराग आता है।
लेकिन थोड़ी दूर जा कर वही बाज़ारवाद
नज़र आता है !!
ये दालचीनी की सुगंध अब बहोत भा रही है,
जिन्दगी प्याज के परतों सी उधड़ी ताक रही है,
सब कुछ खोकर भी कुछ न पाया कह रही है,
अब आँखों को नींद बहोत भाती है,
पर शरीर की लाचारी तड़पारही है,
जिन्दगी दवाई के रैपर में सिमटी चली जा रही है, !!
इन विज्ञापनों का दम है।
जो गोरापन इनका रंग है।
तभी तो हर चमकती चीज सोना लगती है।
और हर काली चीज कोयला लगती है।
चलो कुछ तो अच्छा हुआ।
जो हीरा कौड़ियों के दाम बिकने से बच गया।
क्योंकि हीरा तो हीरा होता है, जो कोयले की
खान में रहता है !!
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