मेरा गाँव मेरा बचपन
अब फिर से बचपन की ऊँगली थामने का मन करता है।
अब फिर से ख्वाबो में कागज़ की किश्तियां चलाने का मन करता है।
अब मेरा गाँव मुझे बहुत लुभाता है। फिर से चुराई कच्ची कैरिया खाने का मन करता है।
वो गाँव की सरहद का बूढ़ा बरगद , आँगन का नीम मुझे सपनो में उकसाते है। और मिलने को बुलाते है। इस रेतीली
दोपहर में अब भी मेरी माँ मेरे लिए मट्ठीया तलती है और भेज देती है। किसी अपने के हाथ मेरे आने की मनुहार के साथ।
अब हाथो की मेहंदी रचती नहीं , अब बातो की पहेली सूझती नहीं।
अब फिर से गाँव का हर अपना याद आता है। अब फिर से गाँव जाने का मन करता है।
कन्हैया ये तेरी मुरली की तान , जिन्दगी
जिन्दगी की उड़ान फीकी सी लगती है।
हर होंठो की मुस्कान क़र्ज़ चुकाती सी
लगती है।
कभी फुरसत मिले तो आना इस धरती
पर फिर से
यहाँ हर एक जिन्दगी उधार की जिन्दगी
जीती सी लगती है।7
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