परिवर्तन ही सृष्टि नियम है......।।।
कहते है....परिवर्तन ही सृष्टि है।
आंनद में ही जीवन की अनुभूति है।
ब्रह्मस्वरूप ज्ञान ही जीवन का अंधकार
दूर कर सकता है।
और विज्ञान, अध्यात्म, योग हमारे दिव्य
चक्षु नेत्र खोलते है, जीवन जीने का सही
मार्ग प्रशस्त करते है।
फिर भी हम भटक जाते है। क्यूँ??
न जाने कितने "शायद" अपनेआप हमारी
जिंदगी में आ जुड़ते है।
अमावश का अंधेरा, और ये उनींदा आसमान
हमारी उजास भरी आशाओं को क्यूँ लील लेता है।
हम अपनी ही परछाई को पकड़ना चाहते है।
मोह-पाश के बंधनों से मुक्त होना चाहते है।
पर अपनी दृष्टि अपनी चाल नही बदलते, क्यूँ?
हम प्रश्न खुद से करते है?
और उत्तर किसी और से चाहते है। क्यूँ?
हम अपने भीतर क्यूँ नहीं झांकते है।
जिंदगी के नए आयाम क्यूँ नहीं तलाशते है।
एक कहानी याद आ रही है....
आप सबको सुनाती हूँ....
**अमावश की अँधेरी रात में एक अँधा फकीर अपनेआप
से बातें करता हुआ चल रहा था। अचानक किसी कोने से
आवाज आई, 'बाबा दिन निकलने का इंतजार तो कर लेते।'
"दिन.....?" फकीर हँसा, 'दिन और रात आँख वालों का
फैलाया भरम है। महज एक भरम....मुझे रास्ता पार करने के
लिए किसी सूरज की जरूरत नहीं, क्योंकी मेरे लिए दिन भी
उतना ही स्याह है जितनी कि रात, इसलिए मैं अपनी रौशनी,
अपना दिन साथ लिए चलता हूँ।' किसी और के भरोषे नहीं**
बिल्कुल सही कहा बाबा ने सबसे पहले खुद पर भरोषा करो
फिर ये उलझी जिंदगी अपनेआप सरल हो जायेगी।
आप जैसा व्यवहार दूसरों से चाहते है वैसा ही व्यवहार
पहले खुद करों।
अगर जिंदगी में प्यार भी चाहते हो तो पहले खुद प्यार का
मतलब सिखों...प्यार को सिर्फ किताबी लफ़्ज मत बनाओ
प्यार किया जाता है...बदले में प्यार मिलेगा या नहीं मिलेगा
ये नहीं सोचा जाता...अगर क़िस्मत से मिल गया तो ईश्वर का
धन्यवाद करों... न मिले तो भी शिकायत न करों।
ऊपर वाले पर यक़ीन रखों जितना भाग्य में लिखा है। मिल
जायेगा!!!
आंनद में ही जीवन की अनुभूति है।
ब्रह्मस्वरूप ज्ञान ही जीवन का अंधकार
दूर कर सकता है।
और विज्ञान, अध्यात्म, योग हमारे दिव्य
चक्षु नेत्र खोलते है, जीवन जीने का सही
मार्ग प्रशस्त करते है।
फिर भी हम भटक जाते है। क्यूँ??
न जाने कितने "शायद" अपनेआप हमारी
जिंदगी में आ जुड़ते है।
अमावश का अंधेरा, और ये उनींदा आसमान
हमारी उजास भरी आशाओं को क्यूँ लील लेता है।
हम अपनी ही परछाई को पकड़ना चाहते है।
मोह-पाश के बंधनों से मुक्त होना चाहते है।
पर अपनी दृष्टि अपनी चाल नही बदलते, क्यूँ?
हम प्रश्न खुद से करते है?
और उत्तर किसी और से चाहते है। क्यूँ?
हम अपने भीतर क्यूँ नहीं झांकते है।
जिंदगी के नए आयाम क्यूँ नहीं तलाशते है।
एक कहानी याद आ रही है....
आप सबको सुनाती हूँ....
**अमावश की अँधेरी रात में एक अँधा फकीर अपनेआप
से बातें करता हुआ चल रहा था। अचानक किसी कोने से
आवाज आई, 'बाबा दिन निकलने का इंतजार तो कर लेते।'
"दिन.....?" फकीर हँसा, 'दिन और रात आँख वालों का
फैलाया भरम है। महज एक भरम....मुझे रास्ता पार करने के
लिए किसी सूरज की जरूरत नहीं, क्योंकी मेरे लिए दिन भी
उतना ही स्याह है जितनी कि रात, इसलिए मैं अपनी रौशनी,
अपना दिन साथ लिए चलता हूँ।' किसी और के भरोषे नहीं**
बिल्कुल सही कहा बाबा ने सबसे पहले खुद पर भरोषा करो
फिर ये उलझी जिंदगी अपनेआप सरल हो जायेगी।
आप जैसा व्यवहार दूसरों से चाहते है वैसा ही व्यवहार
पहले खुद करों।
अगर जिंदगी में प्यार भी चाहते हो तो पहले खुद प्यार का
मतलब सिखों...प्यार को सिर्फ किताबी लफ़्ज मत बनाओ
प्यार किया जाता है...बदले में प्यार मिलेगा या नहीं मिलेगा
ये नहीं सोचा जाता...अगर क़िस्मत से मिल गया तो ईश्वर का
धन्यवाद करों... न मिले तो भी शिकायत न करों।
ऊपर वाले पर यक़ीन रखों जितना भाग्य में लिखा है। मिल
जायेगा!!!
दार्शनिकता है इस आलेख में ... जीवन की आसान सी बातें भी कभी कभी हम पहचानते नहीं हैं ...
जवाब देंहटाएंस्ययद यही माया है इस माया जाल की ....
जी सही कहा दिगम्बर जी
हटाएंआपका बहुत बहुत धन्यवाद