जिम्मेदारी का बोझ

चिट्ठी हो तो कोई बांचे
भाग न बांचे कोई"
जिम्मेदारी का बोझ पड़ते ही कोई भी इंसान खुद ही जीना सीख जाता है।
एक छोटी सी कहानी : जिम्मेदारी का बोझ
बंगाल में सालों से एक परम्परा रही है। यदि किसी महिला के पति का देहांत हो जाता है तो परिवार वाले उसे वृंदावन छोड़ आते है। ताकि वह अपना बचा जीवन भगवान को याद करते हुए गुजारे, या यूं कह ले परिवार वाले उससे पीछा छुड़ा लेते है।
ऐसी ही एक स्त्री वृंदा के पति की मौत हो जाती है। शादी के मात्र 10 वर्ष बाद। घरवाले अपनी कुल की रीत निभाने मतलब उसे वृंदावन छोड़ने पर आमादा हो जाते है। पर वह वहाँ जाना नहीं चाहती कारण उसका 8 साल का बेटा।
सब उसे वहाँ जाने के लिए मनाने, डराने, धमकाने, भी लग जाते है। उसका जीवन पति के मरते ही नर्क बन जाता है साथ ही बेटे का भी। वह सबके सामने खड़ी हो जाती है अपने बेटे की ढाल बन कर और फैसला सुना देती है वह कहीं नही जाने वाली। घर वाले उसके खिलाफ हो जाते है। और उसे घर से निकाल देते है। मायके वाले भी उसे आश्रय नहीं देते समाज के डर से। जैसे-तैसे उसको एक आश्रम की मदद मिल जाती है वह अपने बेटे के साथ वहाँ रहने चली जाती है।
लेकिन किस्मत की क्या कहिए वहाँ भी वो ज्यादा दिन नहीं रह पाती कारण वहाँ आश्रम की आड़ में वेश्यावृति होती थी।
उसे ये बात जैसे ही पता चली वो वहाँ से भी किसी को बिना कुछ बोले निकल जाती है। भटकते भटकते उसको एक कच्ची बस्ती में जगह मिल जाती है। और घरों में झाड़ू-पोंछा करने की नोकरी भी। अब वो अपने बेटे को एक सरकारी स्कूल में पढ़ा रही है और मेहनत करके अपनी और अपने बच्चे की परवरिश भी कर रही है।
ये है हमारी पारंपरिक कुरीतियां जिसे लोग अब भी ढो रहे है अपने ही घर की बहू बेटियों की बलि देकर।

वृंदावन विधवा स्त्रियों से अट गया है। पिछले कुछेक दशकों में वृंदावन जैसे छोटे कस्बे की हालत ये हो गई है कि यहाँ की किसी भी सड़क पर सफेद साड़ी में गुजरती सैकड़ो महिलाओं को देखकर लगता है, मानो ये विधवाओं की बस्ती है। वृंदावन के गोविंददेवजी, रंगजी, शाहजी, मंदिर के बाहर कतार में भीख मांगने वाली औरते बैठी मिल जाएगी।
जो कभी किसी घर की रसोई सम्हालती थी पति की मौत के बाद पेट भरने के लिए भीख मांग गुजारा कर रही है।

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