चौबीस घँटे
चौबीसों घँटे समय आगे बढ़ता रहता है
फिर आप और हम क्यों रुक जाते है?
क्या हम "फालूदा खाते दांत टूटे, तो बला से"
वाली कहावत चरितार्थ करते है? मतलब जो दांत फालूदा खाने से टूट जाये, ऐसी मुश्किल का जिक्र करने से क्या फायदा।
नदी का मूल, और ऋषि का कुल नहीं देखा जाता है।
माना चौबीसों घँटे कोई एक सा नहीं रहता समय भी नही, लेकिन समय कभी रुकता नही आगे बढ़ता ही रहता है।
दुख की लौ में भी जलिये यही लौ आपकी नजरें साफ करेगी आपको यही सही मार्ग भी दिखाएगी।
सुख और दुख तो आते-जाते रहते है।
राम को भी वनवास भोगना पड़ा था, सीता का विछोह सहना पड़ा था। लेकिन अगर राम वनवास न जाते रावण सीता को उठा कर न ले जाता तो रावण का अंत भी असंभव था। "इक लाख पूत सवा लाख नाती। तिन रावण घर दिया न बाती"। जिस रावण के घर बेटों-पोतों की कमी न थी, उसके घर में दिया जलाने वाला भी कोई नहीं बचा था।
जब हर तरफ विपदा दिखे कोई राह न सूझे तो बस थोड़ा सा शांति से काम लीजिये कोई न कोई राह सूझ ही जाएगी यकीन मानिए।
बुरे दिन "तवे पर पड़े बूंद" जैसे होते है पल भर में न सही पर कुछ वक्त में उड़ ही जायेंगे।
कुछ जानना चाहते है तो उसके निकट चले जाइये
दूर से तो पीतल भी सोना लगता है। पास जाकर ही पीतल और सोने की परख की जा सकती है।
एक कविता "चौबीस घँटे"
समय तरकश चलाएगा मुझ पर
इतिहास महाट्टहास करेगा
किताबे तंज कसेगी
भीड़ उल्हाना देगी
अधर्म शपथ लेगा
अहंकार सर चढ़ेगा
शिखर का मुकुट
पांव पड़ेगा।
संसार का नियम
आंखों में तड़पेगा।
फिर भी कुछ तो शेष बचेगा
अबोध प्रेम फिर से मिट्टी में उगेगा
ग्रीष्म तपेगा
वर्षा झूला झुलेगी
शरदें मुस्कायेगी
वसंत मन में बसेगा
मिट्टी में एक बीज वृक्ष बनेगा
चिड़ियों का घोंसला सजेगा
अनगिनत प्रेम
उसके आस-पास मंडराएगा।
उत्सवों का डेरा
सबका मन बहलाएगा।
फिर आप और हम क्यों रुक जाते है?
क्या हम "फालूदा खाते दांत टूटे, तो बला से"
वाली कहावत चरितार्थ करते है? मतलब जो दांत फालूदा खाने से टूट जाये, ऐसी मुश्किल का जिक्र करने से क्या फायदा।
नदी का मूल, और ऋषि का कुल नहीं देखा जाता है।
माना चौबीसों घँटे कोई एक सा नहीं रहता समय भी नही, लेकिन समय कभी रुकता नही आगे बढ़ता ही रहता है।
दुख की लौ में भी जलिये यही लौ आपकी नजरें साफ करेगी आपको यही सही मार्ग भी दिखाएगी।
सुख और दुख तो आते-जाते रहते है।
राम को भी वनवास भोगना पड़ा था, सीता का विछोह सहना पड़ा था। लेकिन अगर राम वनवास न जाते रावण सीता को उठा कर न ले जाता तो रावण का अंत भी असंभव था। "इक लाख पूत सवा लाख नाती। तिन रावण घर दिया न बाती"। जिस रावण के घर बेटों-पोतों की कमी न थी, उसके घर में दिया जलाने वाला भी कोई नहीं बचा था।
जब हर तरफ विपदा दिखे कोई राह न सूझे तो बस थोड़ा सा शांति से काम लीजिये कोई न कोई राह सूझ ही जाएगी यकीन मानिए।
बुरे दिन "तवे पर पड़े बूंद" जैसे होते है पल भर में न सही पर कुछ वक्त में उड़ ही जायेंगे।
कुछ जानना चाहते है तो उसके निकट चले जाइये
दूर से तो पीतल भी सोना लगता है। पास जाकर ही पीतल और सोने की परख की जा सकती है।
एक कविता "चौबीस घँटे"
समय तरकश चलाएगा मुझ पर
इतिहास महाट्टहास करेगा
किताबे तंज कसेगी
भीड़ उल्हाना देगी
अधर्म शपथ लेगा
अहंकार सर चढ़ेगा
शिखर का मुकुट
पांव पड़ेगा।
संसार का नियम
आंखों में तड़पेगा।
फिर भी कुछ तो शेष बचेगा
अबोध प्रेम फिर से मिट्टी में उगेगा
ग्रीष्म तपेगा
वर्षा झूला झुलेगी
शरदें मुस्कायेगी
वसंत मन में बसेगा
मिट्टी में एक बीज वृक्ष बनेगा
चिड़ियों का घोंसला सजेगा
अनगिनत प्रेम
उसके आस-पास मंडराएगा।
उत्सवों का डेरा
सबका मन बहलाएगा।
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