लॉकडाउन

आसमान में खड़े होकर धरती की पीड़ा नहीं देखी जा सकती। प्रवासी मजदूरों की समस्या आज सबसे विकराल रूप धारण कर चुकी है।
अभी अपने घरों को लौट रहे है। गाँवो में वापस जा रहे है। बेरोजगारी.... क्या ये समस्या और बढ़ने वाली नहीं है??
शहरों में कामगार नहीं मिलेंगे, और गाँवो में इनको क्या काम मिलेगा??
समस्या जस की तस ही रहने वाली है, शायद भविष्य में भी। अपराध अभी कम जरूर हुए है पर भविष्य में ये और बढ़ सकते है, जो हम अभी देख नहीं पा रहे है।

रामलाल का बेटा लॉकडाउन में जैसे तैसे पैदल चल कर घर पहुंच गया। फिर 14 दिनों के लिए सरकार के दिशा-निर्देश पर अलग रखने के बाद उसे उसके घर जाने दिया गया।
वहाँ पहले से भुखमरी की जड़े जमी थी। जो थोड़ी बहुत ज़मीन बची थी वो बंजर हो चुकी थी, वर्षो से वहाँ कोई फसल जो नहीं उगी थी।

रामलाल बिस्तर पकड़ चुका था दमे के रोग के कारण।
सारा दिन खाँसता रहता था। पड़ोसियों ने पुलिस में शिकायत कर दी, पुलिस आई और रामलाल को ले गई। गाँव वालों ने उनके घर से परहेज करना शुरू कर दिया।

पिता हॉस्पिटल में बंद घर में वो उसकी माँ, उसके तीन छोटे बच्चे, और पत्नी बंद।
घर में जरूरत का सामान भी लगभग खत्म हो गया।
न सब्जी, न दूध अब उनके घर कोई सामान नही पहुंच रहा था। बस जो बचा था, वो लोग उसी से काम चला रहे थे।
14 दिन फिर क्वारेंटाइन होने के बाद अब राहत मिली है।
लेकिन ये क्या उनके साथ कोई बात नहीं कर रहा। लोग देख कर दूर भाग जाते है। जैसे कोई भूत आ गया हो।
काम मिलना अब बहुत मुश्किल, ऊपर से हॉस्पिटल का खर्च, बच्चों के मासूम चेहरे, उदास मुरझाई पत्नी।

सोचा था गाँव लौट कुछ काम-धाम कर परिवार का गुजारा कर लेंगे। माँ-बाबा की सेवा कर कुछ पुण्य कमा लेगे। लेकिन हुआ सब उल्टा।
अब कौन दोषी, कौन दोषी नही?
कुछ समझ नहीं आ रहा।
हालत बद से बत्तर हो चुके है।
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एक और घटना : शहरी हालात के
मोहनजी की माँ गाँव में चल बसी अचानक हार्ट- अटैक से। मोहनजी ये समाचार पा पत्नी के साथ  जिस हालत में थे उसी हालत में गाँव चले गए।

1 महीने बाद घर लौटे।
लेकिन पड़ोसियों ने शिकायत कर दी थाने पर कि ये बाहर से आये है, एक महीने बाद। माँ मर गई उसकी सांत्वना तो दूर पड़ोसियों ने पूछा तक नही। उल्टा कोरोना के डर से पुलिस में शिकायत कर दी वो अलग।
पुलिस ने कहा 14 दिन क्वारेंटाईन रहना पड़ेगा, हॉस्पिटल में। उसके 45,00 सौ लगेंगे। क्वारेंटाइन नहीं रहना तो जहाँ से आये है वहीं वापस चले जाइए। मोहनजी वापस गाँव चले गए। यहाँ रह कर सबकी अवहेलना कौन झेलेगा ये सोच।
न शहर बचा न गाँव ये बीमारी इंसानियत भी निगल गई।

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