रोटियां
सुनयना से रोज आटा ज्यादा लग जाता।
और रोज रोटियां बच जाती उन बची रोटियों को से वो सुबह का नास्ता कर लेती थी। हालांकि सभी के लिए गर्म नास्ता बनाती थी।
आज फिर जयेश विफर पड़ा, तुम इतनी ज्यादा रोटियां क्यों बना लेती हो, रोज ठंडी रोटी खाती हो।
आटा कम नहीं लगा सकती क्या?
सुनयना भी आज विफर पड़ी अब रोज रोटियां भी गिन कर बनाऊं क्या? बच्चे कभी ज्यादा खा लेते है तो कभी कम।
बार-बार आटा नहीं लगता मुझसे।
ये सुन जयेश का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया।
मैं कल से 2 रोटी कम खा लूंगा तो मर नहीं जाऊंगा लेकिन तुम कल से आटा कम लगाओगी बस कह दिया आज।
सुनयना गुस्से का घूंट पी कर रह गयी और कल कम आटा लगाया उसने। आज बच्चों ने ज्यादा रोटियां खा ली, जयेश भी भरपेट खाकर उठा।
अब सिर्फ दो रोटियां बची थी।
वो आधा पेट खा कर सुकून से सो गई ये सोच..
अब कल कम से कम इस आटे के पीछे तो कोई लड़ाई नहीं होगी।
ये कैसी लड़ाई बिना बात की। शायद हर दूसरे घर की कहानी है। पुरुष का अहंकार या एक स्त्री का अहंकार।
आटा ज्यादा भी लग गया तो क्या??
और अगर आटा कम पड़ गया तो दुबारा क्यों नही लगा??
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