दर्द का ये सफ़र... आखिर कब थमेगा...
कई कोरोना की चपेट में गए और उससे ज्यादा इस महामारी में किये गए लॉकडाउन की वजह बर्बाद ही हो गए।
सुगनाराम के दो बेटे है। बड़ा बेटा निक्कमा और छोटा भी कोई काम-काज नहीं मिलने के कारण निक्कमा।
एक रिश्तेदार की मदद से सुगनाराम के छोटे बेटे को एक पानीपुरी का ठेला मिल गया। पर दूसरे शहर में।
लेकिन परिवार राजी था उसे दूसरे शहर में भेजने के लिए।
दूसरा शहर है तो क्या हुआ। कुछ काम-धाम कर कम से कम अपने परिवार का पेट तो भरेगा। यहाँ तो इस निक्कमे को खिलाओ और उसकी बीबी को भी जो सारा दिन पसरी रहती है। उसके दो छोटे बच्चों को भी खिलाओ।
दूसरे शहर में जा सुगनाराम का छोटा बेटा जिसका नाम विशाल है। पानीपुरी का ठेला लगाने लगा। और उस पानीपुरी के लिए सारा सामान बनाने लगी उसकी बीबी जो सारा दिन पसरी रहती थी।
काम चल निकला था। यहाँ के लोग खास कर औरते बहुत चटोरी थी। या यूं कहें कि उन्हें पानीपुरी बहुत भाती थी।
रोज शाम को विशाल को फुरसत नहीं मिलती थी। उसकी पानीपुरी का स्वाद सबकी जबान पर चढ़ गया था। अब उसकी बीबी भी फूली नहीं समाती थी।
लेकिन अभी इस पानीपुरी का ठेला जमे साल भी नहीं हुआ था। कि कोरोना महामारी आ गई।
और सरकार ने इस बीमारी से सबको बचाने के लिए लॉक डाउन कर दिया। सभी घरों में बंद हो गए। सबके धंधे चौपट हो गए। और अपनी पूंजी खाने लगे।
विशाल के पास भी महीना बीतते ही पैसे खत्म होने लगे।
आखिर लगाता तो पानीपुरी का ठेला ही था न। ऊपर से चार जनों का पेट भरना स्कूल की फीस भरना क्या कम था।
अब ये लॉकडाउन ने उसकी कमर तोड़ दी। एक तो घर से दूर दूसरे शहर में ऊपर से कमाए पैसे लगभग खत्म हो गए थे।
पूरा देश बंद, शहर सुनसान सरकार ने सभी बस, ट्रेन, सभी साधन भी बंद कर दिए थे।
उसकी भूखों मरने की नोबत आ गई। तभी उसके गांव वालों ने जो उसी शहर में रहते थे, और छोटा-मोटा धंधा करते थे। उन सभी की करीब-करीब एक जैसी ही हालत थी। ...प्रस्ताव रखा। पैदल घर जाने का।
कुछ सोच वो भी पैदल जाने का ये प्रस्ताव स्वीकार कर लेता है। शायद 15 दिन लगेंगे घर पहुंचने में फिर भी वो मान जाता है। यहाँ भूखों मरने से तो अच्छा है। गाँव मे जा कुछ सब्जी ही उगा ले अपने पिता की मदद करे। कम से कम दो वक्त की रोटी तो मिल ही जाएगी।
वो एक दिन तय कर सुबह जल्दी अंधेरे ही पूरे 20 लोग एक साथ गाँव के लिए निकल जाते है।
2 दिन चलते हुए हो गए पैर में छाले पड़ गए। साथ मे चल रहे बच्चों का तो और भी बुरा हाल है।
बच्चे दर्द से बिलखते, छाले अलग और ऊपर से धूप, भूख-प्यास, बस नाम मात्र को खाने को।
सब एक रोटी के चार टुकड़े कर पानी में भिगो कर खा रहे थे।
जब बच्चे दर्द से तड़प उठते तो विशाल और और उसके साथी अपने अपने बच्चों को दर्द की दवाई खिला देते वो भी भूखे पेट। पूरे 8 बच्चे थे सबके मिला कर।
बच्चों की तिबियत अब बिगड़ने लगी थी। पर कर भी क्या सकते थे। वो तो बच्चों को बस अपनों के पास घर पहुंचाना चाहते थे, किसी भी तरह। क्योंकि और कोई चारा नहीं बचा था इसके सिवा।
दो दिन चलने के बाद वो एक पास के शहर पहुंचते है।
और थोड़ा आराम के लिए सड़क किनारे ही बैठ जाते है एक साथ।
इतने में पुलिस आ जाती है। उनके मुँह पर न कोई मास्क न उन्होंने आपस में कोई दूरी बना रखी थी।
पुलिस~कहाँ से आ रहे हो और कहाँ जा रहे हो इस तरह बच्चों को लेकर।
जी अपने घर जा रहे है। बच्चों के दादा-दादी के पास अपने गाँव।
तुम लोग इस तरह नहीं जा सकते। तुम लोगो ने सरकार के किसी नियम का भी पालन नहीं किया है।
अपना सामान दिखाओ। इसमें क्या-क्या है?
पुलिस भी देखते ही सन... रह गई नाममात्र को खाने का सामान लेकिन दर्द निवारक गोलियां बहुत सारी कई-कई पत्ते सभी के झोले में।
ये सब क्या है? साहब बच्चों के लिए लाए है। वो अभी छोटे है। ज्यादा चल नहीं पाते दर्द से तो इनको खिला देते है।
बस किसी तरह इनको घर पहुंचा दे नहीं तो ये भूखे मर जायेंगे।
अरे ये तो वैसे ही मर जायेंगे तुम लोग बच्चों को भूखे पेट ये इतनी दवाइयां खिला रहे हो।
जानते हो ये क्या कर रहे हो तुम सब।
सब चुप-खामोशी छा गई।
एक ने कहा हम कौन सा शौक से अपने जान के टुकड़ो को ये खिला रहे है। सरकार ने कोई रास्ता नहीं छोड़ा हमारे लिए।
हम तो बस भूख से बचने के लिए दवाइयां खा घर जा रहे है।
सब चुप...पुलिस बैठो सब गाड़ी में
एक बोला हमें गाड़ी में घर छोड़ोगे क्या साहब? नही तुम्हें सरकार के आदेश पर अस्थाई निवास पर रखेंगे।
अलग-अलग। वहाँ खाना-पानी सब मिलेगा और जब लॉक डाउन खुल जायेगा छोड़ देंगे।
मतलब हम फिर से भूखे मरेंगे न घर के न घाट के एक बोल पड़ा।
फिर सब ख़ामोश चुप-चाप गाड़ी में बैठ गए।
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