क्रोध की अग्नि में जलता व्याकुल मन
अंगारे सा दहकता है।
विचार शून्य हो जाते है।
हम खुद को छला हुआ महसूस करते है।
हर बात में क्रोध हावी रहता है।
कभी मरने का मन तो कभी बदला लेने का मन करता है।
सामने वाले को उसकी हक़ीकत बता देने का मन करता है।
पर हक़ीकत में सब हमारी ही गलती होती है।
हम क्यों दूसरों की बातों में आकर
खुद का सर्वनाश करते है।
पहले बात मान कर फिर क्रोध का घूँट पी कर,
खुद को तड़पाते है।
खुद को जलाते है।
हम क्यों ऐसा करते है।
क्रोध का रंग इतना गाढ़ा क्यूँ होता है?
क्रोध तपती दोपहर सा क्यूँ होता है?
क्रोध हमारे विचारों को खा क्यूँ जाता है?
क्रोध में भूख-प्यास क्यूँ मर जाती है?
क्रोध में हम खुद का ही नुकसान क्यूँ कर लेते है?
क्रोध में उदासी क्यूँ लिपटी होती है?
क्रोध रेतीली आंधी सा क्यूँ होता है?
क्रोध में इंसान अपना ही सर
पत्थर से क्यूँ टकराता है?
क्रोध ने कई जीवन निगल लिए।
मेरा भी जीवन क्रोध ने निगल लिया।
क्रोध खारे समुंदर जैसा होता है,
जहाँ सिर्फ जहरीली, विचार शून्य
संवेदनाएं होती है।
क्रोध बहुत काला होता है।
जैसे अमावश की रात में
बीहड़ का सूनापन।
जंगल की सांय-सांय करती आवाज जैसा।
कुछ-कुछ प्रेत जैसा होता है क्रोध
जहाँ सिर्फ मौत क्रीड़ा करती है।
क्रोध में व्यक्ति लाल
भावना शून्य
विचार शून्य
अकड़ी हुई मृत काया जैसा होता है।
जहाँ उसकी खुद की चिता जलना तय है।
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