लघुकथा : सबकी लाड़ली लाड़ो

कमाल की आंखे थी उसकी, गहरी, काली, बोलती आंखे
जैसे सारी बातें आंखों से ही कह देगी।
सारे घर की लाडली लाड़ो,  यही नाम था उसका लाड़ो।
उसके जन्मते ही दादी ने ये प्यारा नाम रख दिया था उसका।

लाड़ो सारे घर मे इतराती फिरती थी, जैसे उस जैसा कोई और है ही नहीं। माँ ने भी उसे खूब सर चढ़ा लिया था।
तीन भाइयों में इकलौती जो थी।

पापा, दादा, दादी, माँ सबकी जान उसी लाड़ो में बसती थी।
वो जरा सी खांस भी दे तो दादा-पापा की लड़ाई हो जाती थी।  ' इसे अभी तक डॉक्टर को क्यों नहीं दिखाया तूने '।

लाड़ो ने 12 वीं अच्छे नम्बरों से पास कर ली थी, तो उसे एक अच्छे कॉलेज में एडमिशन भी मिल गया था।

अब लाड़ो के पैर जमीन पर नहीं टिकते थे। रोज नई ड्रेस पहन कर खूब सारा काजल लगा कर कॉलेज जाने लगी थी वो।  उसे कहाँ कुछ पता था, वो तो बस यूं ही बिना बात सहेलियों संग खिलखिला कर हँस पड़ती थी।
यही आदत उसे ले डूबी।

एक दिन पार्किंग में वो अपनी सहेली के साथ उसकी स्कूटी लेने गई तो चार सड़कछाप लड़को ने दोनों को छेड़ दिया।
" वाह क्या हँसती है ये पीली ड्रेस वाली लड़की "
लाड़ो ने उन्हें घूर कर देखा और एक साधरण सी गाली उन पर चिपका दी।
लड़के गाली सुन आपे से बाहर हो गए। उन्होंने और बत्तमीजी की लाड़ो और उसकी सहेली के साथ।

उन्होंने उन दोनों को वो स्कूटी भी नहीं लेने दी और दोनो पर गुस्से में टूट पड़े। और दोनों को अधमरा करके भाग गए।
दोनों बेहद खराब हालत में घर पहुंची और घरवालों से आपबीती बता दी। घर वाले सन रह गए। और सारा दोष लाड़ो पर डाल माथा पकड़ कर बैठ गए।

आधी रात लाड़ो पखे से झूल गई। और घर वालों ने बात दबा दी, जगहँसाई के कारण।

दोष किसका लाड़ो का, या घर वालों का, या समाज का,
उन लड़कों को और हिम्मत मिल गई किसी और नई लाड़ो 
का जीवन बर्बाद के लिए।

क्या लड़की को बहादुरी का पाठ नहीं पढ़ाया जा सकता।
उसे हमेशा बस छुईमुई क्यों बनाया जाता है।
लाड़ो जैसी लड़कियां हमारे आस-पास बहुत है।
बस छुई-मुई सी लड़की जिसको कोई भी नोच कर भाग जाता है। 

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