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अप्रैल, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

तुम्हे कसम है हमारी...!!

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  चोट लगती है दिल पर कभी तो क्या हुआ, तुम उदास मत होना। गज़ल, चुटकुलों से दिल बहलाना। अपना दर्द किसी अपने से बांट लेना। अपने शौक जिंदा रखना। आंखों में नमी को जगह मत देना। बरसात में भीग जाना। आकाश से गले मिल लेना। खुशियों की राह में जो बने रोड़ा, उसे खाई में धकेल देना। कोई कुछ भी कहे सीने पर पत्थर न रखना। जीवन की धूप तो यूं ही सुलगती है, उसे काली बदली से मिलवा देना अपना अंतर्मन दुखी मत करना, मौसम का जोड़-घटाव समझ  उसे जमीं में दफ़ना देना तुम। सुनो.... तुम तो बगीचे की शान हो... गुड़हल की मुस्कान हो... पलाश की जान हो... गुलाब से महकते... चंपा-चमेली की... सादगी से पूर्ण हो। सुनो.... दिल मे बरसात हुई हो तो... आंखों से बाहर बाहा देना। एक पन्ना लिख कर... किसी पेड़ के नीचे रख आना। ज़ख्मों की सतहों मेंखुद को मत दबाना तुम। फिर कोई यादों की गठरी... खुली है शायद। अधूरे वाक्य कंठें... जमे है शायद। चिर-परिचित घाव... हरे हुए है शायद। तुम काली रात में... खुद को न रुलाना  कसम है तुम्हें हमारी...!!

दास्ता अकेलेपन की (कोरोना वायरस)

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 भरे -पूरे घर की मालकिन सुलभा। यूँ तो बहुत सुघड़ गृहणी थी। लेकिन जैसे-जैसे बच्चे बड़े हो रहे थे आत्मनिर्भर हो रहे थे, और सुलभा अकेलेपन का शिकार। पति अपने काम मे व्यस्त बच्चे अपने कॉलेज में व्यस्त। ऐसे में सुलभा का वक्त काटे नहीं कट रहा था। बस सुबह-शाम काम, खाना फिर सारे दिन अकेले रहती थी वो। टीवी, अख़बार पढ़-पढ़ कर बोर हो चुकी थी। ऐसे में एक दिन खबर आई उनकी जिठानी बीमार हो गई है, उसे कोरोना हुआ है। कोरोना उस वक्त नया था वो समझ नहीं पाई कि ये कौन सी बीमारी है। खैर उसके पति जैसे-तैसे उसे वहाँ अपनी भाई- भाभी से मिलाने ले गए। लेकिन ये क्या उन्हें उनसे मिलने ही नही दिया गया और उल्टा उन दोनों को वहाँ रहने भी नही दिया गया। फिर जैसे-तैसे वो दोनो अपने घर वापस आये। लेकिन यहाँ आते ही सुलभा की तबियत खराब हो गई डॉक्टर ने उसे कोरोना बताया। सुलभा को घर मे ही अलग छत पर बने कमरे में रख दिया गया। उसका खाना वहीं गेट के नीचे से दिया जाने लगा इससे सुलभा बहुत आहत हो गई। एक तो बीमार शरीर में जान नही ऊपर से अकेलापन वो बर्दास्त नहीं कर पा रही थी। खैर वो जल्द ही ठीक हो गई और घर में जो जैसे चल रहा था चलने लगा। ऐस...

अवनि ने अम्बर को पुकारा

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  अवनि ने अम्बर को पुकारा देख चहुँ और का नजारा बंजारा सूरज धरती तपाने लगा है। सागर सुखाने लगा है। ओ मेघ राजा अब तो आजा अपनी फुहार से इस सूरज का ताप थोड़ा कम कर जा। पहाड़ी कंधे से उतर आम की डाल पर बैठा सूरज अपनी तपिश से सबको डराता सूरज मिट्टी के घड़े में सबको डुबोता सूरज अपनी कामयाबी पर इतराता सूरज दिन में सबको जलाता रात में छिप जाता सूरज। अवनि देख ये दिनकर की चालाकी उषा संग आया निशा में घुल गया  संध्या संग पहाड़ी की ओट में छिप गया है। अब कल भरी दोपहरिया इसे आने दे सर पर सबके नाचने दे उसी वक्त मेघ राजा को बुलाऊँगी इसे फुहार में भिगोऊँगी दिन में तारें दिखा इसकी ज्वाला शांत करूँगी।

प्रेम का झरना

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  मेरे अंदर न सूखने वाला एक झरना है। पहाड़ से उतरती एक नदी है। एक तालाब भी है जो कभी खाली नहीं होता है। हमेशा बहता रहता है हमेशा भरा रहता है। जैसे काले बादलों में पानी भरा रहता है। बंजर जमीं को सींचने के लिए मैं भरी रहती हूँ। प्रेम से प्रेम को सींचने के लिए। आकर्षण तुम्हारे आकर्षण में मैं बिन डोर  खींची चली जाती हूँ। तुम मुझे बरबस अपनी ओर खींच लेते हो बस एक आवाज लगा तुम मुझे खुद में समेट लेते हो। तुम्हारी सादगी से मैं बेहद प्रभावित हो गई हूँ, मैं आजकल तुम बन गई हूँ। बिना बात अब खुद से बाते करती हूँ घँटों तुम्हारा इंतजार करती हूँ वो भी तुम्हें बिना बताए। जानते हो मैं ये सब नहीं चाहती फिर भी सब कर रही हूँ सिर्फ तुम्हारे लिए। अपने प्रेम के लिए। जानती हूं नियति तो कुछ और ही है, पर अब सब स्वीकार चुकी मैं। हृदय में स्थान दे चुकी मैं तुम्हे। अब यूं ही मेरे हृदय में रहना मेरे हृदय का लाल रक्त बन कर, मेरे जीवित रहने तक।