सरकारी आपदा

 आपदा का इम्तिहान


कितने बेरोजगार हुए, कितने भूख से मरे, कितने बेइलाज मरे, कितने ख़ौफ़ से मरे, कितने अवसाद में मरे।

कोई आंकड़ा नही हमारे पास सिवाय सरकारी आंकड़े के।


एक छोटी लघुकथा : सरकारी आपदा


आत्माराम जी कोल्हू के बैल जैसे हो गए है, सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाते-लगाते। अवसाद और क्रोध अब उनकी नसों में बहता है। उनकी पत्नी जो ठीक से दस्तख़त भी नहीं कर सकती उसने सुबह आत्माराम जी को झिड़क दिया।


' वर्षो से देख रही हूँ, भूसे की तरह पिसते रहते हो, पर सरकारी गेंहू तक घर नहीं ला रहे। फुट गई मेरी किस्मत जो तुम संग ब्याही गई।'

आत्मा राम जी भी चिल्ला पड़े ' जाओ तो अपने मायके, वहाँ तिजोरी खुली पड़ी है।'  दो साइन भी ठीक से नहीं कर सकती, और मुझे सीखा रही है। इसके नाज- नखरे उठाते- उठाते सारी जिंदगी खपा दी मैंने पर ये नहीं सुधरी।


लॉकडाउन ने आत्माराम जी प्राइवेट स्कूल की नोकरी छीन ली, बच्चे अब ट्यूशन पढ़ने भी नहीं आते जिससे उनका घर का खर्चा चल रहा था।

पहले वो सरकारी राशन को अपनी शान के खिलाफ समझते थे। अब उसी राशन के लिए तरस रहे है।

क्योंकि उनके पास आधारकार्ड नहीं है। लॉकडाउन से पहले वो आधारकार्ड बस में कही गिर गया था। जो वो बंद के कारण दूसरा नहीं बनवा पाए।


अब लॉकडाउन खुलते ही उसे ही बनवाने के लिए चक्कर लगा रहे है, चेहरे को रुमाल से ढक मारे- मारे फिर रहे है।

5 किलों सरकारी गेहूं और चावल भी घर नहीं ला पा रहे है।

बस अपनी बचत से एक वक्त की रोटी हलक से नीचे उतार जीये जाने की रस्म निभा रहे है।


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