स्त्री...!!!
जिंदगी की उषा में घुलती निशा में बिखरती सारे इल्ज़ाम सहती परिवार की धुरी कहलाती। स्त्री...! क्या सारे बिखराव की जड़ यही है? जिसने सारे परिवार को जोड़े रखा। आकाश ताकती घर सजाती सारी थकान को मुठ्ठी में बंद किये, सबकी थाली सजाती उसकी थाली खाली रह जाती। अनेको प्रश्नों से घिरी जिम्मेदारियों के बोझ तले दबी। परिवार की धुरी कहलाती। स्त्री...! जब परिवार का मुखिया एक पुरुष है, तो बिखराव की जिम्मेदार एक स्त्री कैसे हुई? रूढ़ियों से संघर्ष करती स्त्री.. हर परिस्थिति में ढलती है। गणित समझ नहीं पाती, फिर भी घर का गणित सम्हालती है। अपने मन मे उलझी सबकी उलझने दूर करने की कोशिश में लगी रहती है। दूसरी जिंदगी को जन्म देने वाली स्त्री.. अपनी जिंदगी को अभिशाप मानती है। या ये कहे कि हमारा दोगला व्यवहार उसे ये मानने पर मजबूर करता है। हर स्तर पर पुरुषों के बाराबर फिर भी दोयम दर्जे की नागरिक कहलाती है। उसे बचपन से ये सिखाया जाता है कि ज्यादा मत बोला कर, चुप रहा कर तू चुप रहेगी तो परिवार आसानी से चला पाएगी। जिसको बोलने तक कि आजादी नहीं उस पर बिखराव का लांछन क्यों? आज की बात करे...