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एक कहानी ऐसी भी....!!

कहते है शादी दो लोगों का नहीं दो परिवारों का मिलन होता है। लेकिन आज के माहौल में ये बात हर जगह सटीक नहीं बैठती है। सुचित्रा अपने सांवले रंग को लेकर बहुत परेशान रहती थी। हालांकि वो बहुत पढ़ी-लिखी और एक उच्च पद पर आसीन थी। तब भी वो अपने सांवलेपन से दुखी थी। या यूं कहें सब उसे दुखी कर रहे थे। उसका सांवला रंग ही उसकी शादी में बाधा डाल रहा था। उसके घर वाले भी जब-तब उसे उसके सांवले होने का ताना मार देते थे। इससे वो बहुत आहत होती थी। और अक्सर रोते-रोते ही उसकी रात कटती थी। हर दूसरे दिन उसे कोई न कोई देखने आ जाता लेकिन कभी उसके सांवले रंग के करण बात अटक जाती तो कहीं वो अपनी बराबरी का लड़का न पाकर मना कर देती थी। एक दिन एक लड़का दिनेश उसे देखने आया तो सुचित्रा ने अपने घर वालो से उसके सामने जाने से मना कर दिया और घरवालों से कहा कि यहाँ क्या कोई चीज बेच रहे है आप लोग, जो हर दूसरे दिन कोई न कोई खरीददार आ जाता है, और पसंद की चीज न पाकर मना कर जाता है।  ये बेइज्जती मैं और बर्दास्त नहीं कर सकती हूँ। तो सुचित्रा की माँ ने उससे कहा ये तो सबके साथ होता है। ये सब तो अक्सर लड़कियों को बर्दास्त करना ही पड़त...

लहसुनियां

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गाड़िया लुहार रोज ठिकाने बदलते रहते है। सड़क किनारे कहीं भी तिरपाल की झोपड़ी डाल रह लेते है कुछ दिन। सड़क किनारे ही चूल्हा जलता है इनका और मोटी गर्म रोटियां सिकती है। और वही सिलबट्टे पर लालमिर्च, लहसुन की चटनी पीस सब खाना खा लेते है। लहसुनियां यही नाम रख दिया था गोमा लुहार ने अपनी बड़ी बेटी का। बेटी की उम्र 14 साल की थी पर रहती बड़ी औरतों के जैसी थी। उसकी गोद में हमेशा एक बच्चा टंगा रहता था। सब उसके इस बच्चे को उसका छोटा भाई समझते थे। और वो भी सबसे यही कहती थी। गोमा ने अपनी बेटी का लग्न बचपन में ही अपनी रिश्तेदारी में कर दिया था। अब उसके ससुराल वाले उसे ले जाना चाहते थे। पर गोमा अभी बेटी को भेजना नहीं चाहता था कुछ दिन क्योंकि एक सेठ का उमरदराज बेटा उसकी बेटी पर मर- मिटा था। वो जब भी आता थैला भर के राशन लाता था। और पूरा परिवार उस राशन पर ऐश कर रहा था। लहसुनियां का ये बच्चा भी उसी की देन था। गोमा ने सोच रखा था जब तक इस शहर में है तब तक वो लहसुनियां को अपने ससुराल नहीं भेजेगा। दूसरे शहर में डेरा डालते ही वो लहसुनियां का बच्चा खुद रख लहसुनियां को अपने ससुराल भेज देगा। जब तक यहाँ है अपनी माली हाल...

तू जलता सूरज....मैं नर्म मखमली

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मैं गीत उदासी ले लिखती हूँ, तू हँस कर पढ़ना। मेरे लबों पर अपने लब मुस्कुराकर रखना। तू आवारा बादल मेरे शहर में जमकर बरसना। मेरी गली में रुककर बाढ़ बन, मुझे बहा ले जाना। तू जलता सूरज मैं मुलायम मखमल, तू मुझे बरखा के इंद्रधनुष  के हवाले कर, मेरी आगोश में चमकना। तू खजुराहो सा मैं अजंता एलोरा सी तू मुझे संस्कृत में प्रेमालाप करना सीखा देना। तू मुझे अंग्रेजी में शिमला की बर्फ की कहानी सुना देना। तू मथुरा का पेड़ा मैं राजस्थान की कचोरी तू मुझको कलकत्ता का रसगुल्ला खिला देना। तू दस्तक, मैं बंद किवाड़ों सी तू शारजहां, मैं मुमताज सी मुझको अपने महल में हिफाज़त से अपनी आंखों के सामने रखना। तू मेरा सोना पिया मैं तेरी बुलबुल तू मुझको सोहनी बना देना खुद मेरा महिवाल बन जाना। सुन~~~ तेरे आने से मेरा दिन होता है। जैसे सूरज के आने से उजाला होता है। तेरे जाने से मेरा मन रोता है, जैसे अमावश की रात में चाँद छुपकर रोता है। मेरी कविताएँ बहुत कटीली है, देख कहीं तेरा कुर्ता न अटक जाए, मेरे बालों में तेरा बटन न टंग जाए। सुन~~~ तू मेरा आकाश मैं तेरी धरती मेरी चहुं दिशाओं में तू मेरे हर राग-विराग में तू मेरी स्मृति...

रेड सिग्नल

जैसे ही रेड सिग्नल हुआ, हाथों में नकली फूलों का गुलदस्ता और गोद मे दुधमुंहा बच्चा लिए एक 25, 26 साल की लड़की मटमैली ओढ़नी में लिपटी गाड़ी की आगे की सीट की तरह तेजी से दौड़ी। फूल ले लो साहब, मेरा बच्चा दो दिन से भूखा है। कुछ पैसे दे दो साहब वो गिड़गिड़ाई। 'हट यहाँ से तुम भिखारियों का कुछ नही हो सकता सिग्नल हुआ नहीं कि दौड़े चले आते हो भीख मांगने शर्म नही आती तुम लोगों को'। कुछ काम-धाम क्यों नहीं करते हो ढंग का। वो पहले चुपचाप हाथ फैलाये सब सुनती रही फिर बोली शर्म तो बहुत आती है साहब भीख मांगने में लेकिन कोई काम पर रखता नही हम गरीबो को। साले सब कामचोर हो, काम करना ही नहीं चाहते। अब रेड सिग्नल ग्रीन सिग्नल में बदलने ही वाला था कि उस लड़की ने ओढ़नी थोड़ी सी सरका कर ब्लाउज के आगे के बटन खोल अपने दुखमुहे बच्चे को छाती से लगा लिया। साहब देखता रहा और झट अपनी जेब से रुपये निकाल उसकी हथेली पर रख दिये। और गाड़ी साइड में लगा उसे अपने पास बुला लिया। ये है आज के अमीर और गरीब दोनो अपनी अपनी जगह आज के परिवेश में ढल चुके।

रोटियां

सुनयना से रोज आटा ज्यादा लग जाता। और रोज रोटियां बच जाती उन बची रोटियों को से वो सुबह का नास्ता कर लेती थी। हालांकि सभी के लिए गर्म नास्ता बनाती थी। आज फिर जयेश विफर पड़ा, तुम इतनी ज्यादा रोटियां क्यों बना लेती हो, रोज ठंडी रोटी खाती हो। आटा कम नहीं लगा सकती क्या? सुनयना भी आज विफर पड़ी अब रोज रोटियां भी गिन कर बनाऊं क्या? बच्चे कभी ज्यादा खा लेते है तो कभी कम। बार-बार आटा नहीं लगता मुझसे। ये सुन जयेश का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया। मैं कल से 2 रोटी कम खा लूंगा तो मर नहीं जाऊंगा लेकिन तुम कल से आटा कम लगाओगी बस कह दिया आज। सुनयना गुस्से का घूंट पी कर रह गयी और कल कम आटा लगाया उसने। आज बच्चों ने ज्यादा रोटियां खा ली, जयेश भी भरपेट खाकर उठा। अब सिर्फ दो रोटियां बची थी। वो आधा पेट खा कर सुकून से सो गई ये सोच.. अब कल कम से कम इस आटे के पीछे तो कोई लड़ाई नहीं होगी। ये कैसी लड़ाई बिना बात की। शायद हर दूसरे घर की कहानी है। पुरुष का अहंकार या एक स्त्री का अहंकार। आटा ज्यादा भी लग गया तो क्या?? और अगर आटा कम पड़ गया तो दुबारा क्यों नही लगा??

कब्र

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कब्र के कान नहीं होते? लेकिन मिट्टी ने मिट्टी की भाषा सुन ली। क्यों री तू कैसे मरी  ' देख सब कैसे रो रहे है। तेरे मरने पर भी चंदन की लकड़ी का इंतज़ाम किया है इन्होंने ' बड़ी भागो वाली है , कितना बड़ा परिवार है तेरा। सब नाटक कर रहे है जिज्जी, जब मैं जिंदा थी एक-एक रुपए के लिए मोहताज थी। कभी खसम के आगे तो कभी बेटों के आगे हाथ फैलती , बदले में गालियां और ताने सुनती थी। सारा दिन डंगरों के जैसे घर मे जूती रहती थी।  फिर घर में बहुएं आ गई, उनके आते ही मेरा वो छोटा सा कमरा भी मुझसे छिन गया। मेरी खाट आंगन के कोने में लगा दी गई। वहाँ दो घड़ी भी चैन न मिलता था। कभी बारिश तो कभी सर्दी तो कभी जेठ की लू सब सहती थी। और बदले में सुनती थी। 'कब तक ये बुढ़िया यूं ही सेवा करवाती रहेगी। कब पिछा छूटेगा इससे पता नहीं' ये जल्दी से निपट जाए तो हम गंगा नहा ले।

जलपरी.....

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जलपरी.... सुनहरी झील में सोने सी चमकती जलपरी, हर पूनम की रात बलखाती नदी से बाहर निकलती, नवयौवना का रूप धर कर। बर्फ सी पारदर्शी, संगमरमर की मूरत सी पूरे तट पर बिखरी शंख-सीपियाँ बिनती, और उन शंख-सीपियों संग खूब खेलती वो हर पूनम की हर रात को। बारिश के दिन आये चाँद नहीं निकला एक पूनम की रात, वो इंतज़ार करती रही चाँद का पर चाँद बादलों में छिप कर बैठा रहा। वो उफनती नदी से प्रश्न पूछती रही आज चाँद क्यों नहीं निकला? तो नदी बोली आज बादल का दिन है वो चाँद को आगोश में लिए बैठा है। इतना सुनते ही जलपरी रुआंसी हो गई और गुस्से में चितकबरी हो गई। उसका सौंदर्य बारिश में बह गया। वो मछली सी तड़प कर, मछली सी हो गई। चाँद ये देख दूर गगन में पत्थर हो गया और सूरज के पीछे छिप गया।