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खारा इल्ज़ाम

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रिश्ता दर्द का ज़ख्मो को चीर मन में चुभ गया। खारा इल्ज़ाम चुप-चाप आँखों में भर आँचल में छुप गया। शौक जिन्दा मन मर गया। रेतीली आँधी में कारवाँ जिन्दगी का गुजर गया। नज़रो का पीलापन जिन्दगी को डस गया। जमाना देखता रह गया जिन्दगी अलमारी में बंद हो गई। नसीहतें मंजूर हो निर्णय निगल गई।

मन की व्याकुलता...!!

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अब तो उम्र बितानी है, हर फैसले पर तीर चला.. अपनी राय सबको सुनानी है। सिमटे-सिमटे से किस्से, मोहिनी नदी में डुबो.. अपनी व्याकुलता.. धरती में धसा देनी है। सांसो के संग्राम में, पीली माटी को.. निःशब्द कर वैदेही सी, धरती के आंचल में सुला देनी है। जीवित विकार.. गंगा की लहरों में प्रवाह कर, तन-मन को शांत कर लेना है। अब तो उम्र बितानी है, जल समाधी से पहले.. छिटके मन को.. बाँहो में भर.. जग की रीत सुनानी है!!

भारतीय मानसिकता

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भारतीय समाज, भारतीय मानसिकता में बदलाव तो आ रहा है। लेकिन.. अपनी आधी आबादी को बराबरी का दर्जा देने में अब भी संकोच है। हम कानूनी लड़ाई तो जीत लेते है लेकिन अपने अंदर का डर नहीं मार पाते। सदियों से दिमाग में घुसे धर्म और ईश्वर के डर ने महिला के स्वतंत्र सोच को पनपने ही नहीं दिया। फिर चाहे.. सबरीमाला मंदिर हो, या महिला अधिकार से जुड़ा कोई और मामला स्त्री देह से बाहर नहीं निकल पाती। ज़रा ग़ौर करें जिस देह से सभी जन्म लेते है वो अपवित्र कैसे हो गई। अगर वो इतनी ही अपवित्र है तो अपने जन्म का कोई और उपाय सोचना चाहिए पुरुषों को क्योंकि पुरुष आज भी दोहरी मानसिकता लिए जीता है। एक तरफ स्त्री महान तो दूसरी तरफ अपवित्र, भोग- विलास की वस्तु अलग। संसार का कोई भी धर्म स्त्री को पुरुष के बराबर नहीं मानता। क्या सिर्फ देह ही स्त्री का सामाजिक, प्राकृतिक, और सांस्कृतिक सत्य है। पुरुष प्रधान समाज को मर्दवादी मानसिकता, धार्मिक मान्यताओं, रीति-रिवाजों, मनु स्मृतियों से खाद-पानी मिलता रहता है। स्त्री को चुप रहने की हिदायत दी जाती है। मी टू भी इसी हासिये पर बलि चढ़ गया भारत हो या अमेरिका स्र

मुझे जीवित समझना माँ..फिर तुझे रोना नहीं आएगा...

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अब समय हो गया चलता हूँ माँ.. मेरी चिंता न करना,.. अपनी आँखों के आंसू जाया न करना..। देख पूरा देश ढांढस बंधा रहा.. निःशब्द मुझे ताक रहा.. मेरा दर्द बयां कर.. अँधेरा चीर रहा.. डूबा सूरज उग रहा.. मैंने तुमसें एक दिन कहा था.. माँ मैं जब जाऊंगा.. पूरी धरा मुझे सलाम करेगी.. देख माँ हर आंख नम हो मुझे ही निहार रही.. मुझे जीवित समझना माँ.. अपने आंगन का गुलाब समझना.. मेरी यादों को अपने आँचल में छुपा लेना.. फिर तुझे रोना नहीं आएगा माँ.. मुझे ऐसे ही जीवित रखना.. मुझे ऐसे ही सीने से लगाकर रखना माँ..!!

निर्मोही वसंत...!!!

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निर्मोही वसंत... तुझसे बड़ा छलिया कोई नहीं। गुलमोहर तेरे बहकावे में लाल हुआ.. पलास तेरे बहकावे में दहक उठा.. अमलतास झट से चटक गई..। गूंगा मोगरा अपनी सुगंध फ़ैलाने को तैयार हो गया। गेंदा, गुलाब, चंपा, चमेली सब तेरी बातों में आ गए। हर रंग मुखर हो उठे.. हर फूल मुस्कुरा उठा.. धरती ने इंद्रधनुषी चुनर ओढ़ ली.. चाँद आसमां में सीना तान खड़ा हो गया.. निर्मोही वसंत... तूने सबकों कैसे फांस लिया। निश्चित तू कचनार की ललाई है। सर्दी की शाम/गर्मी की सुबह है। फूलों का समारोह.. रंगों का शामियाना.. कृष्ण-राधा की जोड़ी.. और क्या चहिये निर्मोही वसंत। चंचलता की कोपलें.. पुरवइया ब्यार.. पहाड़ो की ढाल पर बेलों की अटखेलियां.. कवियों का अनोखा अंदाज.. वसंत तेरे मुखोटे में हर तान..। ऋतुओं का लाडला.. फूलों-फलों का देव.. निश्चय तू कनेर स्वर्ण सा.. होली का गुलाल.. सुंदर तेरा हर श्रृंगार.. सुंदर तेरा हर अंदाज..!!

समय की धारा...!!!

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समय की धारा में बहते-बहते.. देखो हम कहाँ आ गए। जन्म-मृत्यु की पोशाक पहने.. गहरा अनुभव लिए, नाउम्मीदी की खाई में धसते जा रहे है। जरूरतों का गहना पहने.. आँखों में छटपटाहट लिए.. सच्चाई के दुशाले में लिपटे.. खुद को समय की कील चुभा.. उलझनों की आग में, स्वाहा हो रहे है। तपती समय की धारा में.. बारिश की बूंदों का स्वांग.. छाती जमा देता है। मन उजाड़ देता है। जंगली बेल सा.. मन को जकड़ लेता है। धरती गगन ओढ़े.. हमें पुचकार रही है। पर हम खुद को.. समय की भेंट चढ़ा.. देह के पार.. अनिर्णय के शाप में.. खुद को जला चुके!!

नियति का विधान...!!!

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नियति का विधान विचित्र है। संसार का सबसे सुंदर फूल दुर्गम घाटी में खिलता है। कदम्ब का फल बहुत सुंदर होता है, पर मधुर नहीं। सांच की आंच पर हर इंसा पकता है। राई सी जरूरते तरसता मन, मोहताज़ खुशियां समय की आंधी में बिन शोर उड़ती रहती है। कतरे-कतरे में खुद को गलाता इंसा सब स्वीकार करता है। क़िस्मत को कुछ मंजूर नहीं ये सोच तसल्ली का घूंट पी लेता है। भीतर तक आहत बस मद्धम-मद्धम गीत गुनगुना लेता है। नँगे पैर धरती का स्पर्श करता, सूरज की आभा तले गुड़हल के फूल सा मुस्कुरा लेता है। अपनी झोपड़ी में खुद को टटोलता, बरसते नेह से अपनी छवि के चक्कर लगा सिमटकर सो जाता है। नियति का विधान विचित्र है। हर संभव में असंभव मिला, अँधेरे में उजियारा तलाशता इंसा.. निर्दोष जीवन, काल के ग्रास में अचरज भरा जीवन जी लेता है!!