यादों का खुरदरापन.....
समस्याओं में और उलझती जा रही हूँ, घुटनों पर किताब रख तुम्हें ही ताकती जा रही हूँ। भीतर तक आहत हूँ, तुम पर यक़ीन करने की गुनहगार हूँ। भ्रम हो गया था, बसंत का अमलतास तो कब का बीत गया। ऊंघते हुए भी बरबस आंखे गीली हो रही है। चंचलता बैरी उलझनों में तड़प रही है। निश्तिच ही तुम मेरे कर्जदार थे.. तभी तो तुम मुझे फागुन में तड़पा, सावन के भरोसे...रेतीले टीले पर खड़ा कर गए हो। "डाली से तोड़कर फूल कुचलते नहीं है, लहू का रंग हाथों पर मसलते नहीं है।" "पैरों के नीचे धूल बहुत है.. आंखों में तिनके चुभ रहे है.. रक्तरंजित शरीर से खून बह रहा है.. मरी हुई आत्मा चुपचाप जल कर, प्रश्नों के छल में उत्तर ढूंढ़ रही है।" "पलाश के अंगारे खिल रहे है, रात्रितिमिर का खुरदरापन कसैली यादों संग आंखों से तकिये पर झर रहा है।" कौतूहल व्याप्त हो जाता है ज्यों ही तुम मेरी कल्पना में व्याप्त हो जाते हो। फूल भले गूंगे हो रंग मुखर हो उठते है। चंद्राकार घाव पर.. रात की रानी के फूलों का सुगंधित लेप कर शीशम में पत्तों के ढक दिया है। अब ये सुगंध बाहर नहीं फैलेगी। शरीर ...