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कल की बात है...!!!

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कल की बात है..,, मुफ्त में पास आते.. सीने से लग कर रोते.. होठों से हँसकर शिकायत करते थे..। उदासियों के जमघट में.. हँसी-ठिठोली करते थे..। कैसे भूल बैठे तुम यादों का वो सिलसिला.. नदी में तैरती उजली किरण सा वो नगमा.. घाट की सीढियों की वो शरारत..। कह लेने दो मत रोको मुझे.. मेरी आदत जो बन गए हो तुम..। कल की बात है..,, हाथ पकड़े टहलते थे ख़्वाबों में.. तितली पकड़ते थे नज़रो से.. कसीदे पढ़ते थे आसमानी.. बंसी की धुन पर नाचते थे अरमानी..। कल की बात है..,, उन्मुक्त बहते थे बातों में.. पुष्प रखते थे किताबों में.. मिलने जाते थे मंदिर में.. राह तकते थे खिड़की पर..। कल की बात है..,, गुजर गया वक्त कहाँ पास है..। बहने दो ये चमकदार एहसास.. आज की रात.. कल की बात कहाँ पास है..??

सुख-दुख सबके अपने-अपने है....!!!

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सुख भी सबके अपने दुख भी सबके अपने है। कोई हँसकर रोता है, कोई रोते-रोते हँसता है। यहाँ नजरों में अफ़सोस तजुर्बों का मेला लगता है ताजा हवा बाहर निकाल घुटन को कैद किया जाता है। निंद्रा की बस्ती में, थकान चुभोई जाती है। सुकून की चाहत में पत्थर से आंसू गिर भाप बन उड़ रहे है। मंजिल का पता नहीं रास्तों पर भटक रहे है। खामोशियाँ दर्ज कर खुशियाँ बीन रहे है! अभावों में जीते कल की चिंता में मर रहे है!

चोट...दिल की...

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ध्यान हटा फिर चोट लग गई, जिस्म पर एक ख़रोंच नहीं दिल से खून बह गया। झुकी पलकों में, एक स्वर चीत्कार कर शांत हो गया। समझ से परे हर चीज हो गई, फुरसत के पल आँसुओ के हवाले हो गई। दृष्टि देखती रह गई, गुजरे पल की धुन कोमल मन आहत कर गई। छलावा प्रेम का, गीत विरह के धुन अपनी खो बैठे। नजरों का धोखा, प्राण की सुंदरता खा गया। अनजाना एहसास विचित्र सुगंध सा मन कड़वा कर गया। मेरे मौन में भर खुद उड़ गया। एकाकीपन की शून्यता मेरा आज सकुंचित कर रही है, फिर से जीने की आस मन मे अंगारे जला रही है।

यादों का खुरदरापन.....

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 समस्याओं में और उलझती जा रही हूँ, घुटनों पर किताब रख तुम्हें ही ताकती जा रही हूँ। भीतर तक आहत हूँ, तुम पर यक़ीन करने की गुनहगार हूँ। भ्रम हो गया था, बसंत का अमलतास तो कब का बीत गया। ऊंघते हुए भी बरबस आंखे गीली हो रही है। चंचलता बैरी उलझनों में तड़प रही है। निश्तिच ही तुम मेरे कर्जदार थे.. तभी तो तुम मुझे फागुन में तड़पा, सावन के भरोसे...रेतीले टीले पर खड़ा कर गए हो। "डाली से तोड़कर फूल कुचलते नहीं है, लहू का रंग हाथों पर मसलते नहीं है।" "पैरों के नीचे धूल बहुत है.. आंखों में तिनके चुभ रहे है.. रक्तरंजित शरीर से खून बह रहा है.. मरी हुई आत्मा चुपचाप जल कर, प्रश्नों के छल में उत्तर ढूंढ़ रही है।" "पलाश के अंगारे खिल रहे है, रात्रितिमिर का खुरदरापन कसैली यादों संग आंखों से तकिये पर झर रहा है।" कौतूहल व्याप्त हो जाता है ज्यों ही तुम मेरी कल्पना में व्याप्त हो जाते हो। फूल भले गूंगे हो रंग मुखर हो उठते है। चंद्राकार घाव पर.. रात की रानी के फूलों का सुगंधित लेप कर शीशम में पत्तों के ढक दिया है। अब ये सुगंध बाहर नहीं फैलेगी। शरीर ...

पुकार मन की....

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बाहर की पुकार हो या अंदर का निर्णय.. संकल्पों के द्वार शरीर मे, मन को समझना जरूरी है। सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण सब हमारे अंदर ही तो होता है। हमें संकल्पों के माध्यम से सही का चुनाव करना पड़ता है। शरीर, मन आत्मा तीन चौराहे है जिसे पार कर संसार जीतना पड़ता है। दिशा और दशा सब पहले से तय होते है। हमें तो बस उत्साह का सृजन करना पड़ता है। अवसर तो मिल जाते है, भरोसा रखिये खुद पर कुछ टूट रहा है तो टूटने दीजिये टूटने से ही नया अंकुरन निकलता है। जिंदगी के हर सफ़र में, मनुष्य होने का गौरव मनाइए सम्मान के साथ श्रम करते हुए जीवन बिताइए।

यादें.....!!!

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तुम्हारी खबर अब आती नहीं जी बहलता नहीं रेत की दीवारों में सांसे घुटती है। मिट्टी के जिस्म से महक आती नही। तुम्हें दूर तक जाते देखा था, कमजोर नजरों का हवाला दे  खुद को बहलाया था। आँसुओ की गरिमा रखी और बारिश में जा नहाई थी। ख़यालो में जलकर खुद से भी बेखबर हो गई हूँ, तेरी ऊष्मा में जलकर ठंडी पड़ गई हूँ। तू ओट में छिपकर मत देखा कर अब अमावश का अंधेरा हूँ। दूर तक बंजर पड़ी ज़मीन का, खुरदुरा हिस्सा हूँ। मेरा श्रृंगार अब कुछ भी नहीं यादों में ज़ख्म हरा कर बैठी हूँ। तेरी तस्वीर से नजरें हटा तेरा चित्र दिल से मिटाने की कोशिश कर रही हूँ। तुझे ही लिख कर तुझे ही दिल से मिटाने की कोशिश कर रही हूँ!

अधूरी बातें....!!!

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अनेक अधूरी बातें मन में है, पर अब कुछ कहने का मन नहीं। मेरा विश्वास गगन की कसम खा मर गया। अलमारी में बंद किताबों में दफ़न हो गया। संघर्ष की सांसे मुझे एक टक देख रही है, मेरे सामर्थ्य से चकाचौंध हो रही है। लफ्ज़ो में बिखरे संवाद, किताबों की दुनिया मे घुट रहे है। असमंजस की बारिश में भीग, आंखों से बरस रहे है। गुजरते वक्त में, सब अधूरा छूट रहा है। मैं सब कुछ भूलती जा रही हूँ, मेरी मीठी आवाज, आंखे मीच.. मेरे गले में ही घुट रही है। न जाने ये कैसी गांठ दर्द की, मेरे जिस्म में उभर रही है। सिंदूरी शाम में भी, मैं अकेली रो रही हूँ। भारी सांसो में, चाय का घूंट निगल, खुद को यादों से बाहर निकाल रही हूँ। ये कैसी जिन्दगी मैं जी रही हूँ। गजब का ज्ञान.. बर्फीली हवा से सहारे.. टूटी खिड़की से बाहर फेंक रही हूँ। मिथ्या आरोप में भी, सबको मना.. अपनी ज़िंदगी को विराम दे रही हूँ। अभिव्यक्ति की आजादी नही, अपनी सांसो को.. जिस्म का लिबास पहना.. किताबघर में कैद हो गई हूँ। अनेक अधूरी बातें मन मे, जिस्म की चौखट से.. बाहर धकेल रही हूँ!!!