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तेरी परछाई...बिल्कुल तुझ सी...!!!

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तुझे क्या हुआ? मुझे बता... तेरी चुनर किसने खींचीं... मुझे बता । तू क्यूँ? जीती जागती चिता बन गई... आ उसकी चिता सज़ा दे... जिसने तेरी चुनर खींचीं...। तू रो मत... तू पाक थी, है, और रहेगी, हमेशा...। वो नपुंसक था...। जिसने तेरी चुनर खींचीं... भूल जा वो दर्द, वो सितम... तू तैयारी कर ले नई राह की... नये भविष्य की । जो बाहें फैलाये तेरी प्रतीक्षा कर रहा है...। आ उनको सबक सिखाते है...। जिन्होंने... हाथों में त्रिशूल थमा महान बनाया... फिर लाज़... शर्म... हया... के गहने तले हमें दबाया... हमारा तिरस्कार किया... हमें आईने में कैद कर... हमारा शोषण किया...। पूरी पीढ़ी का जन्म दाता बना... हमें दूध के कटोरे में डूबाया...। हमारे जन्मते ही हमें खोखले रीति- रिवाजों की भेंट चढ़ाया...। कही बुर्का...कहीँ घूँघट... ओढ़ाया... और खुद की पैदाइस के लिए इस्तेमाल किया...। हमें चूल्हें - चौके में झोंक खुद शासक बना...। हमें पराश्रित किया...। आ... तू रो मत...उन्हें सबक सिखाते है...। जिन्होंने हमें रुलाया...। आ शिक्षा तले शस्त्र उठाते है...। बिन्दी, पायल, चूड़ी,  नथनी,  बिछिया... सब सिरहाने रख

मैं और मेरा चाँद

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            मेरी शामें सिमटी तुझमें , रातें बेख़ौफ़ तुझसे लिपट रही है । सूरज की पहली किरण भी तू , दोपहर की जागती ख़्वाबो का एहसास भी तू , तुझे कैसे बताऊ सारे अनगढ़ सवाल तू , सारे अनसुलझे सवाल भी तू , और मेरी मुस्कान की वजह भी तू , मेरे चेहरे पर चढ़ा ये सिन्दूरी रंग भी तेरा , मेरे होंठो से किलकारियां फूट रही है । और अब मुझे डर लग रहा है । कहीँ कोई देख न ले , कहीँ मैं बीना वजह बदनाम न हो जाऊं , तेरा क्या है । तू तो छिप जायेगा रात में जुगनू सा , मैं रात में सितारों की महफ़िल में , चाँद की मंधिम रौशनी में पकड़ी जाऊँगी । फिर क्या कहूंगी सबसे , जब लोग पूछेगें ये सिन्दूरी रंग कैसे चढ़ा , किलकारियां क्यों फूटी , तो मैं एक बहाना फिर गढ़ दूंगी , की , मुझे ये चाँद जला रहा था , चिढ़ा रहा था , इसलिए मैं भी उसे जला रही थी , चिढ़ा रही थी । पवन बहका रहा था , इसलिए मैं भी उसे बहका रही थी । और अब रात में उसे फिर जलाऊंगी , फिर चिढाऊँगी , क्योंकि उसने चाँद से मेरे बारे में बातें कर मुझे परेशान किया है । अरे , तुम सब मुझे गलत समझ रहे हो , मैं तो इस चाँद से बदला ले रही हूँ , और कुछ नह

वक़्त का वक्तव्य

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          दफ़न ख्वाइशों का जिंदा मिशाल हूँ , हर गली , हर मोहल्ला , हर शहर ,  मेरा एहसानमंद है । मैं क़ातिल नहीं , बस समझौता हूँ , मैं सबकी खुशियों का राज़दार हूँ , पर क्या करूँ , जिन्दगी सिर्फ खुशियों का ताना , बाना तो नहीं । मैं बिन बुलाया मेहमान सा हूँ , कोई चाहे न चाहे सबकी जिंदगियों को बहा ले जाता हूँ , सब मेरी परवाह करते है । पर चलते , ग्रह- नक्षत्रों के हिसाब से है । मैं क्या करूँ लू के थपेड़े दे उन्हें भी समझाता हूँ , फिर सबका गुनाहगार भी , कहलाता हूँ । पतझड़ सा उड़ , इस सदी से , उस सदी में , यू ही भटक रहा हूँ । मैं भविष्य की टहनी हूँ , तो गड़े मुर्दो का वक्त भी , मेरा खुद का कोई रंग , कोई आकार , कोई रूप नहीं । बस सबको वक़्त के अनुरूप ढाल देता हूँ । मैं वक़्त हूँ , मैं हर पल , हर लम्हा चलता हूँ , इंतज़ार किसी का नहीं करता । कभी भी , कभी भी , !!!

कब आओगे कान्हा

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            कहाँ हो कान्हा , मन बहुत व्याकुल है । सुना है । तुम्हारे चाहने वाले बहोत है । अब मेरे लिए तुम्हारे पास वक़्त नही , पर कान्हा मैं तो सिर्फ तुम्हारी थी , हूँ , और हमेशा रहूँगी , पता है कान्हा , आज मेरा मन तुम में बहक रहा है , धरा सा फ़ैल रहा है , आसमां सा भटक रहा है , किरणों सा उड़ रहा है , पवन सा शोर मचा रहा है , । जानती हूँ , तुम्हे सारी दुनिया चलानी है । पर मेरा क्या कान्हा , दो पल मेरे लिए भी निकाल लिया करो । आज माँ यशोदा भी तुम्हारी शिकायत कर रही थी । तुमने बहोत दिनों से माखन भी नहीं खाया है । वो यु  ही पड़ा - पड़ा तुम्हारे इंतज़ार में पिघल रहा है । सुनो  ,  कान्हा हम सबसे यु पीछा न छुड़ाओ , आ जाओ इस धरती पर फिर से , सब तुम्हारा इंतज़ार कर रहे है ।                                      कान्हा को फाइलों की रट लगी है ,                    यहाँ मेरी नींद उड़ी है ।                    कान्हा गोपियों संग उड़ रहा है ,                    यहाँ मैं तारों संग भटक रही हूँ ।                     जाने कब आयेगा कान्हा  ,                     बारिशों सा इंद्रधनुषी सौगा

कुछ सच्ची कुछ झूठी जिन्दगी

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जिन्दगी हर मोड़ पर एक नया राज़ लाती है । दीपक की लौ कभी मंदी कभी तेज़ हो जाती है । मन अश्कों की पेटी है , चाबी जाने कहाँ गुम हो गई है । अब बदलो की गर्जन भी डरा नहीं पाती , हिमशिला पिघला नहीं पाती । माना आग का दरिया बारिश बुझा देगी , पर बारिश के जले को बारिश कैसे बुझाएगी । तुम्हारी नजरें भी मुझे भटकती सी लग रही थी । अच्छा हुआ जो मैंने सूरत छीपा रखी थी । कान्हा को राधे बहुत प्रिय थी । पर राधा तो उनके नसीब में नहीं थी । ये तो एक भटकन है , सारा दोष नसीब का है । हाथो की लकीरों को देख हम खुश होते रहे । पर नसीब की बुआई तो पत्थरों से हुई थी । जिस्म की दहलीज़ पर भी संगमरमरी , पत्थर बिछे थे । फिर नर्म मख़मली बिस्तर पर हमें नींद का सुकून , कैसे मिलता । माथे पर बदनसीबी का तिलक सजा है , फिर होंठों पर वीणा के तार कैसे लहरायेंगे । जिन्दगी पैबंद लगी रेशमी साड़ी में लिपटी है । अब पिघलते मोम से भी डरती है । जिन्दगी हर मोड़ पर एक नया राज़ लाती है। दीपक की लौ कभी मंदी कभी तेज़ हो जाती है ।

बोझिल मन

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बोझिल मन , खुशियां पराई , नमक के समुंदर में तैरता मन , जैसे सागर की गहराई में कोई प्यासा , प्यासा ही मर गया । आँखों की दहलीज़ पर अश्कों के मोती ठहरे , होठों में दबी सिसकियों की राह ताक रहे है । जैसे अमावश्या का चाँद इनका समझौता कराने आयेगा । उलझनों का मौसम बेसुध आंगन में टहल रहा है , सुखी पवनों का हमराज़ बन रहा है , जैसे ये परछाई बन इनका साथ निभाने वाली है । इन गहरे रंग की बोतलों से न जाने क्यों बहुत खुशबू आ रही है , इनमें दर्द के छाले भिगोने का मन कर रहा है । इस जिस्म की रंगत अब उड़ चुकी , इसे इत्र की शीशी से नहलाने का मन कर रहा है । बेख़ौफ़ अब उस तराशें हुए पत्थर को चाट कर चाँद की गहराई में तारों संग टिमटिमाने का मन कर रहा है । ये काले बादल अब मेरा हमदर्द है , इनके साथ तड़प कर जाऱ - जाऱ रोने का मन कर रहा है । अब मुमताज़ की सखी बन कब्र की चादर तले बातें करने का मन है । कब्र में सुकून की नींद पाने का मन है !!!

ओ मेरे चंदा

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        ओ मेरे हमदम , मेरे दोस्त , मेरे हमसफ़र चंदा..... तुम रोज घटते - बढ़ते क्यों रहते हो बिल्कुल मेरे मन की तरह । तुम न पास आते हो न दूर जाते हो.... बस मुझे ताकते रहते हो । क्यों ? वो भी ऐसे रातों को दिन में न जाने  कहाँ  चले जाते हो मुझे छोड़कर । मैं तो बस तुम्हें ही ढूढ़ती फिरती हूँ । फिर सूरज से पता चलता है । तुम रात को आओगे मुझे देखने क्यों ? बोलो और हर पन्द्रवे दिन तुम कहाँ चले जाते हो ? मैं तुम्हारी राह ताकते- ताकते यू ही  खुले आंगन में सो जाती हूँ। क्या अच्छा लगता है तुम्हे । मुझे ऐसे क्यों तड़पाते हो । मेरे दोस्त मेरे हमसफ़र चंदा मुझे यू छोड़ कर न जाया करो मुझे अच्छा नहीं लगता है । तुम्हारा ऐसे जाना । जब तुम फिर पन्द्रवे दिन बाद पुरे होकर आते हो कितने सूंदर लगते हो । मैं तो बस तुम पर मुग्ध ही हो जाती हूँ । उस दिन मैं तुम्हारे लिये खीर भी बनाती हूँ पर तुम नहीं खाते मैं ही तुम्हारे हिस्से का भी खाती हूँ । तुम ऐसा क्यों करते हो ? कुछ तो बोलो मेरे हमसफ़र , मेरे चंदा । तुम्हारी ये शीतल चाँदनी मुझे बहुत भाती है । सच कहती हूँ । मैं तो हर पल