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यादों का खुरदरापन.....

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 समस्याओं में और उलझती जा रही हूँ, घुटनों पर किताब रख तुम्हें ही ताकती जा रही हूँ। भीतर तक आहत हूँ, तुम पर यक़ीन करने की गुनहगार हूँ। भ्रम हो गया था, बसंत का अमलतास तो कब का बीत गया। ऊंघते हुए भी बरबस आंखे गीली हो रही है। चंचलता बैरी उलझनों में तड़प रही है। निश्तिच ही तुम मेरे कर्जदार थे.. तभी तो तुम मुझे फागुन में तड़पा, सावन के भरोसे...रेतीले टीले पर खड़ा कर गए हो। "डाली से तोड़कर फूल कुचलते नहीं है, लहू का रंग हाथों पर मसलते नहीं है।" "पैरों के नीचे धूल बहुत है.. आंखों में तिनके चुभ रहे है.. रक्तरंजित शरीर से खून बह रहा है.. मरी हुई आत्मा चुपचाप जल कर, प्रश्नों के छल में उत्तर ढूंढ़ रही है।" "पलाश के अंगारे खिल रहे है, रात्रितिमिर का खुरदरापन कसैली यादों संग आंखों से तकिये पर झर रहा है।" कौतूहल व्याप्त हो जाता है ज्यों ही तुम मेरी कल्पना में व्याप्त हो जाते हो। फूल भले गूंगे हो रंग मुखर हो उठते है। चंद्राकार घाव पर.. रात की रानी के फूलों का सुगंधित लेप कर शीशम में पत्तों के ढक दिया है। अब ये सुगंध बाहर नहीं फैलेगी। शरीर

पुकार मन की....

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बाहर की पुकार हो या अंदर का निर्णय.. संकल्पों के द्वार शरीर मे, मन को समझना जरूरी है। सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण सब हमारे अंदर ही तो होता है। हमें संकल्पों के माध्यम से सही का चुनाव करना पड़ता है। शरीर, मन आत्मा तीन चौराहे है जिसे पार कर संसार जीतना पड़ता है। दिशा और दशा सब पहले से तय होते है। हमें तो बस उत्साह का सृजन करना पड़ता है। अवसर तो मिल जाते है, भरोसा रखिये खुद पर कुछ टूट रहा है तो टूटने दीजिये टूटने से ही नया अंकुरन निकलता है। जिंदगी के हर सफ़र में, मनुष्य होने का गौरव मनाइए सम्मान के साथ श्रम करते हुए जीवन बिताइए।

यादें.....!!!

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तुम्हारी खबर अब आती नहीं जी बहलता नहीं रेत की दीवारों में सांसे घुटती है। मिट्टी के जिस्म से महक आती नही। तुम्हें दूर तक जाते देखा था, कमजोर नजरों का हवाला दे  खुद को बहलाया था। आँसुओ की गरिमा रखी और बारिश में जा नहाई थी। ख़यालो में जलकर खुद से भी बेखबर हो गई हूँ, तेरी ऊष्मा में जलकर ठंडी पड़ गई हूँ। तू ओट में छिपकर मत देखा कर अब अमावश का अंधेरा हूँ। दूर तक बंजर पड़ी ज़मीन का, खुरदुरा हिस्सा हूँ। मेरा श्रृंगार अब कुछ भी नहीं यादों में ज़ख्म हरा कर बैठी हूँ। तेरी तस्वीर से नजरें हटा तेरा चित्र दिल से मिटाने की कोशिश कर रही हूँ। तुझे ही लिख कर तुझे ही दिल से मिटाने की कोशिश कर रही हूँ!

अधूरी बातें....!!!

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अनेक अधूरी बातें मन में है, पर अब कुछ कहने का मन नहीं। मेरा विश्वास गगन की कसम खा मर गया। अलमारी में बंद किताबों में दफ़न हो गया। संघर्ष की सांसे मुझे एक टक देख रही है, मेरे सामर्थ्य से चकाचौंध हो रही है। लफ्ज़ो में बिखरे संवाद, किताबों की दुनिया मे घुट रहे है। असमंजस की बारिश में भीग, आंखों से बरस रहे है। गुजरते वक्त में, सब अधूरा छूट रहा है। मैं सब कुछ भूलती जा रही हूँ, मेरी मीठी आवाज, आंखे मीच.. मेरे गले में ही घुट रही है। न जाने ये कैसी गांठ दर्द की, मेरे जिस्म में उभर रही है। सिंदूरी शाम में भी, मैं अकेली रो रही हूँ। भारी सांसो में, चाय का घूंट निगल, खुद को यादों से बाहर निकाल रही हूँ। ये कैसी जिन्दगी मैं जी रही हूँ। गजब का ज्ञान.. बर्फीली हवा से सहारे.. टूटी खिड़की से बाहर फेंक रही हूँ। मिथ्या आरोप में भी, सबको मना.. अपनी ज़िंदगी को विराम दे रही हूँ। अभिव्यक्ति की आजादी नही, अपनी सांसो को.. जिस्म का लिबास पहना.. किताबघर में कैद हो गई हूँ। अनेक अधूरी बातें मन मे, जिस्म की चौखट से.. बाहर धकेल रही हूँ!!!

सुनों तुम ऐसे तो न थे??

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सुनो तुम ऐसे तो न थे? शांत धरती पर चीड़ के पेड़ जैसे... आसमां में फैली धूप जैसे... शरीर एक किरदार अनेक है तुम्हारे। मकई के खेत में उगे सिट्टे जैसे... सुनो तुम ऐसे तो न थे? अपनी परिधि में घूमते रेत जैसे... गहरे पानी में पत्थर जैसे... तलहटी में उगे निर्जीव फूल जैसे... कितने बदल गए हो तुम? तुम्हारी वो हँसी कहाँ खो गई? तुम्हारी वो शरारते कहाँ खो गई? मेरी पुस्तक के तुम सजीव चित्रण थे। मेरी कहानी के तुम अहम किरदार थे। मेरे विचारों में तुम आत्मा थे। न जाने कहाँ खो गए तुम? इस आधी-अधूरी जिन्दगी में, अब कहाँ ढूँढू तुम्हें? मेरे इर्द-गिर्द ही हो तुम, पर अब पहले जैसे नहीं हो तुम, सुनों तुम ऐसे तो न थे??

ऐ रंगरेंज

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ऐ रंगरेज़... मेरे दिल को न रंगना अपने रंगों के घोल में मुझकों न डुबोना। तेरे शहर में मेरा ठिकाना नहीं है। तेरे सपनों में मेरा काजल नहीं है। ऐ रंगरेज़... मेरे अणु ठोस है। तेरे रंगों को सलीका नहीं, मेरी कालीन में पैबंद बहुत है। तेरी बुनाई में जटिलता बहुत है। ऐ रंगरेज़.... मेरा मोल न लगाना अपने मूल्यों की वृद्धि न करना, प्राकृतिक रंगों को ही स्पष्ट रखना। ऐ रंगरेज़... नीला रंग आसमां में उड़ा देना.. लाल रंग फूलों में भर देना.. हरा धरती के आंगन में बिछा देना.. पीला मेरी चुनर में जड़ देना.. सफेद तेरे-मेरे विश्वास का.. बस अपनी आत्मा में भर लेना.. देह को रंगना.. पर शोर न करना.. हया की लाली.. मेरे मुख पर भर देना.. मेरे दस्तावेजों में.. अपनी रंगीन छवि छुपा देना.. मेरे परिवर्तन में.. मौसमो का हाल सुना देना!!

खारा इल्ज़ाम

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रिश्ता दर्द का ज़ख्मो को चीर मन में चुभ गया। खारा इल्ज़ाम चुप-चाप आँखों में भर आँचल में छुप गया। शौक जिन्दा मन मर गया। रेतीली आँधी में कारवाँ जिन्दगी का गुजर गया। नज़रो का पीलापन जिन्दगी को डस गया। जमाना देखता रह गया जिन्दगी अलमारी में बंद हो गई। नसीहतें मंजूर हो निर्णय निगल गई।