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सुनों ऐ स्त्री!!

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 महिला दिवस क्या होता है?? सिर्फ एक ही दिन ये सम्मान क्यों होता है?? बच्ची के जन्मते ही कुछ की आँखे नम क्यों होती है?? ब्याह होते ही वो पराई क्यों हो जाती है?? माँ बनते ही प्रौढा क्यों हो जाती है?? वृद्धा होते-होते घर का कबाड़ क्यों हो जाती है?? अब भी वो पुरूषों के बराबर क्यों नहीं?? सब चुप क्यों हो!! कुछ तो बोलो!! सुनों ऐ स्त्री~~ मायने नहीं रखता तुम गोरी हो या सांवली हो, मायने रखता है तुम्हारा जज्बा। मायने नहीं रखता तुम्हारा परिवार कितना रूढ़िवादी है, मायने रखता है तुम्हारा हौसला। मायने नहीं रखता तुम्हारी राह में कितनी बाधाएं है, मायने रखता है तुम इन बाधाओं के पार कैसे जाती हो। समझी न तुम!! ऐ स्त्री!!

गेंदा फूल

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  सुनों ऐ गेंदा फूल  गुलशनका कारोबार अब चल निकलेगा बसंती बयार अब हर तरफ गुल महकएगी पलाश दहकेगा, अमराई चटकेगी फागुन रंग उड़ेगी हर मुख पर लाली छाएगी हर बदन में प्रेमल सितार बजेगी इस फागुन ये बसंती बयार खूब झूमेगी। सुनों ऐ गेंदा फूल.... इंतजार रंगों का जाना पहचाना सा है। स्वयं की देह पर प्रेम प्रेमी का देख रंगों में सजने की होड़ है। गौरवर्ण पर सब इंकित हो रहा है। लाल रंग सहज ही सब पर हावी हो रहा है। प्रेमी का प्रेम आकाश सा विस्तृत इंद्रधनुष सा खिल रहा है। ये देख रंगों का तापमान बढ़ गया है। ऐ गेंदा फूल।

नारी (स्त्री)

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  कितनी सीधी सरल हो तुम... खूंटे से बंधी गऊ सी हो तुम? आंगन में बंधी बाड़े की धूल सी हो तुम? सच गऊ जैसी हो तुम! क्या सच में गऊ सी हो तुम?? मौन-मूक पशु हो तुम?? पर सुनो क्या आज की दुनिया में गऊ सी होना कलंक नहीं है? घर-बाहर बेइज्जती का गहना नहीं है ये? तुम गऊ हो! मतलब पशु?? क्या तुम सीधी सरल इंसान हो?? या सीधी सरल मौन मूक पशु हो?? बोलो न  तुम क्या हो??

आओ चाँद सूरज की सताते है...!!

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  आओ चाँद, बातें करते है, सूरज की खिंचाई करते है। रात में बूढ़ी माँ से इसकी  शिकायत करते है। दूध-बताशे की जगह इसे बर्फ का गोला खिलाते है। आधी रात इसे उठाकर बादलों की सैर कराते है। सुबह दूर पहाड़ी के पीछे धुंध में इसे छिपाते है। आओ चाँद इसे ओस का काढ़ा पिलाते है। कोहरे का वस्त्र पहनाते है। इसने सबको बहुत सताया है। इस ठंडी में कभी दिखता है, कभी भाग जाता है। इस सर्दी में ये हमसे आँख-मिचौली करता है। हमें छुपकर सताता है।

निज मन (स्मृति)

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  स्मृति की अंनत यात्रा पर निकली हूँ। बुनियादी सवालों से उलझी एक सतत यात्रा पर निकली हूँ। स्मृति की नदी में हौले-हौले डूबना-उतरना अच्छा लगता है। इस बलखाती नदी में डूबकर नहाना अच्छा लगता है। स्मृति की नदी में कई धाराएं जुड़ी होती है। स्मृति बिता हुआ कल होती है। स्मृति भोगा हुआ यथार्त होती है।

धीरज धरो ओ सजना

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  मैं प्रीत की डोरी तुम प्रेम की डोरी। मैं छलकता सावन तुम उमड़ते मेघ। मैं सौंफ, सुपारी तुम पान का बीड़ा। मैं सुहागन तुम सुहागसेज। मैं दुल्हन तुम दर्पण मेरे। मैं महलों की रानी तुम राजा मेरे ओ सजना धीरज धरो आई रे आई सजनी। तुम बरखा की बूंदे जो मुझमें ही रमे ये जाता दिसंबर ये आती जनवरी इसमें खिले ये सर्द सुहागन अपने पिया जी मे ही रमे ये वैदेही सी सजनी ओ सजना। धीरज धरो ओ सजना!!

वक्त की तासीर

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  वक्त की तासीर लाजवाब होती है। फूलों से लेकर महलों तक अपनी मौजूदगी दर्ज कराती है। बेरंग वक्त, हर रंग में घुलता है। हर मास में मुस्कुराकर पूरा साल ले उड़ता है। ये जाता साल ये आती जनवरी सर्द लिहाफ ओढ़े आती है। सबको उम्मीदों से भरा टोकरा थमा कर जाती है। वक्त की तासीर वैसे तो स्वादहीन, रंगहीन होती है। पर सबकी जबां पर चढ़कर बोलती है। ये एक सदी से दूसरी सदी में यूं ही भटकती रहती है। सबको बांधकर सबको आजाद भी करती है। सुनों ऐ वक्त कैसे पकड़ू तुम्हे तुम तो हवा से उड़ जाते हो पानी से बह जाते हो आग से जल जाते हो। पूरी धरा पर तुम बहकर आसमानी चाँद-सितारों में खो जाते हो। ऐ वक्त तुम भी कमाल करते हो सबको खुद के साथ ले उड़ते हो।।