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परछाई.........!!!

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अब अक्सर सोचती हूँ, तुम्हारा मेरा रिश्ता क्या था। शायद कुछ नहीं। तभी तो मेरे बदन में दर्द की गांठे बुन, पलकों पर अश्रुधार छोड़ कर चले गए। मेरा अस्तित्व ऐसा नहीं था। जो तुमनें कर दिया। मेरी किताब के पन्नों पर, तुमनें गीली..मोतियों की माला सजा दी। मैं पता नहीं किस मिट्टी की बनी हूँ, जो आँधियों में रेत सा उड़ा देता है, उसे ही संवारने लग जाती हूँ। प्रेम की डोरी में रूह के मोती पिरो देती हूँ। पता नहीं किसे संजो रही हूँ, खुद को या उसे जो सब जानकर अंजान है। जिस्मों का सौदागर, मेरी रूह का तलबगार है। या उसे जो मेरा कान्हा जैसा है। वो भरी बरसात में रुलाता है, जो रोऊ तो आंखे दिखाता है। मेरे लबों की हँसी छीन, मुझे हँसाने की कोशिशों में लगा रहता है। पर अब ये आंसू मेरे संगी-साथी, मेरी हँसी में भी मेरा पीछा नहीं छोड़ते, हमेशा मेरा साथ निभाते है। मेरी परछाई बनकर, मेरे अपने बनकर!!!

बहता दर्द पहाड़ो का........!!

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दर्द है जो अब तक रिस रहा है, जख़्म होता तो कब का गया होता। पहाड़ो का दर्द है, बंजर जमीं में दफ़्न हो रहा है। पथरीली राहो की चोट है, जो रक्त बह रहा है। जिन्दगी का अनुभव है, जो धीरे-धीरे थिरक रहा है। लबों का शिकवा है, जो अंजान राहों पर गिर रहा है। रात सो रही है, ख़्वाब गुल्लक फोड़ फैल रहा है। वक्त के पायदान पे वक्त फिसल रहा है। काली रातो का उजला सच बह रहा है। जिस्मों के टांके सांसो में कांप रहे है, ख्यालातों में भी दर्द रो रहे है। आसमां से गिरती चान्दनी में, जख़्मी दिल क्या गा रहा है। शायद मधुर धुंन में, कोई पुराना राग अलाप रहा है। पहाड़ो का उजला संगीत, बेदाग बह रहा है। चमकीला झरना, ज़मी की प्यास बुझा निर्मल हो रहा, पावन हो रहा है!!!

आज एक अजनबी बहोत याद आ रहा है....!!

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आसमां से बादलों का शोर गिर रहा है...। बरखा की बूंदों में मेरा मन भीग रहा है...। आंगन में झील उतर आई है...। उसमें कागज़ की किस्तियाँ चलाने का मन कर रहा है...। कमरे की छत से टपकती बूंदो में संगीत सुनाई दे रहा है...। आज एक अजनबी बहुत याद आ रहा है...। सागर समेटे मन में तूफान ला रहा है...। मेरे कदमों के नीचे खुद के पद्चिन्ह बिछा रहा है...। मेरे उम्मीदों के बक्से में खुद की उम्मीदें दबा रहा है...। मेरी बेचैनी में खुद के ख़्यालात भर रहा है...। मेरे नश्वर शरीर में खुद की आत्मा भर रहा है...। मेरे जन्म-जन्मांतर की पहेली में......... ये क्यूँ? आ रहा है...। न किया था मैंने कोई वादा इससे...... ये फिर क्यूँ? आ रहा है...। क्यूँ? आ रहा है...!!!

रक्त-मिश्रित आंसू......!!!

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आँखों से रक्त-मिश्रित नीर बह रहा है। भावनाओं के समुन्दर में मन तड़प रहा है। हर दृश्य में तू आ रहा है। साँसों की गंध में भी तू समा रहा है। हँसी की आड़ में पलकों से मोती ढलक रहे है। आँचल के सितारों में जा छिप रहे है। हृदय का हर कोना निर्जन-घाटी हो रहा है। आंगन के सन्नाटे में यु ही डोल रहा है। यादों का हर पन्ना तेरा विवरण मांग रहा है सर्द हवाओं में जख़्म सा कुरेद रहा है। मेरी छुअन को मेरे आंगन का गुलाब तड़प रहा है। पर घाटी से उतरती धुप में रो रहा है। मेरी झुंझलाहट में भी तू आ रहा है। नैनो से गिरती जलधारा में भी नजर आ रहा है। जंगल की अमरबेल सा मेरे जीवन में क्यूँ छा रहा है। पागलों सा मेरे माथे पर क्यूँ नाच रहा है। तेरा नाता तो बता क्या है? मुझसे जो ये बार-बार, आ-जा रहा है। वक्त की करवट में, मुझे क्यूँ सता रहा है। मेरी हर आहट में क्यूँ आ रहा है। मेरी नजरों से गिरती पीड़ा में क्यूँ आ रहा है। मुझे ख़्वाबो में भी क्यूँ रुला रहा है। क्यूँ रुला रहा है!!!

इंतजार...........

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मेरे पलकें झपकाते ही... मेरे सामने आकर क्यूँ खड़े को जाते हो?? तुम क्या जताना चाहते हो? की मैं तुम्हें भूल गई, या तुम मुझे भूल गए... तुम्हारी यादों में मैं थी ही कहाँ? जो तुम मुझे भूलते... लेकिन मेरी सांसो में तुम प्राणवायु से घुल गये हो... अब सांसे जुदा होंगी तभी तुम जुदा हो पाओगे...। कितने बुद्धिमान हो तुम? जो ये इश्क़ भी सोच-समझ कर जाँच-परख कर करते हो... और मैं पागल यु ही दिल लगा बैठी... अब भुगत रही हूँ इसकी सजा...! आजकल कोई अहसास भी नहीं होता है...। कब दिन निकलता है...कब रात होती है...। मेरी जिंदगी तो बस...यु ही गुजर रही है...। तुम्हारी यादों में कविता लिखते हुए... मैं संघर्षरत नन्हा पौधा, तुम विशाल स्तम्भ...! मैं कैसे तुम्हें आलिंगन में बांध पाती? सोचो जरा... तुम दुनिया वालों के धोखो से परेशान थे...। शायद इसलिए मेरी मुस्कान पर भी तुमने शक़ किया...बोलो जरा क्यूँ? तुम चाहतों की दुनियां के बेताज बादशाह...! मैं कंपकपाती मृदु स्पर्श... मैं तुम्हारी सहृदयता और ईमानदारी से, बेहद प्रभावित हुई थी...। पर तुम जिंदगी का स्वाद लेने में सब भूल बैठे थे...। मैं जब भी तुम्ह...

आजकल... कहाँ रहते हो.....???

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आजकल कहाँ रहते हो... आंखे मूंद सब पर भरोषा क्यूँ कर लेते हो... तुम्हें न कोई समझ पाया है न समझ पायेगा... क्योंकी तुम सरल नहीं हो...। जिंदगी की भीड़ में कभी नीम तो कभी शहद हो... समझौते भी करते हो, बिना समझौते के... हर किरदार में ढलते हो... हर आकार-प्रकार में संवरते हो... पर माथे पर आई लकीरें कहाँ मिटा पाते हो... दिल को छूने वाली श्यारियाँ भी लिखते हो... राजनीति भी खूब जानते-समझतें हो... हर उत्तर में बहस बहुत करते हो... पर प्रश्न सोच-समझ कर करते हो... खुद में उलझे हो... पर उलझनों को स्वीकार नहीं करते... रगो में खून दौड़ा विरोध प्रदर्शित करते हो... कंटीली झड़ियों में अटक जिस्म छलनी करते हो... और हँस कर सबको भ्रमित भी करते करते हो... तुम्हें कौन समझ पाया है...। न कोई समझा है, न समझ पायेगा...। तुम कमलगट्टे से हो... तो कभी गुलाब पर पड़ी ओस की बूंद से... तो कभी कंटीली झाड़ियों पर लगे बेर से... तुम किसी के हो नहीं पाते... कोई तुम्हारा हो नहीं पता... जीवन नैया को यु ही लहरों पर चलाते हो... एक मोती की आस में... सागर को हथेली पर लिए बैठे हो... आँखों में हजार सपने... होठ...

काश.... तुम मुझे न मिले होते.....!!!

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काश.... तुम मुझे न मिले होते.... मन को पलाश सा दहका.... गुलाब सा महका.... निर्जन टापू पर छोड़ दिया तुमनें....।। मन में स्नेह की लता रोप.... करुणा से सींच.... प्रलय की आँधी में झोंक दिया तुमनें....।। गोधुली बेला के प्रणय सा मिल.... मन में ख्वाइशों का दंगल ला.... हिम पर्वत में फिर से दफ़ना दिया तुमने....।। आँखों को काले-बादलों के.... नियम-कायदे सिखा.... बिन मौसम बारिशों के तोहफे से सज़ा दिया तुमनें....।। नीले आकाश में उड़.... पृथ्वी की अपार वेदना को.... मात्र कुछ शब्दों की जलधारा से शांत करना चाहा तुमनें....।। तुम्हारा प्रेम छन-भंगुर था.... जो जिस्म की ज्वालामुखी में शांत हो गया.... मेरा प्रेम हरसिंगार के फूलों सा था.... जो अब भी झर रहा है....।। खारे पानी की झील में.... मैं अब भी वंसी-तट की नदियां सी बह रही हूँ....।। पर तुम सदाबहार के फूल बन.... अब भी सुदूर अफ्रीका के वनों में.... भटकते से प्रतीत हो रहे हो....।। जीवन अग्नि में प्रभातफेरी.... लगाते से प्रतीत हो रहे हो....।। काश.... तुम मुझे न मिले होते.... तो मेरे नुकीले-अस्थि.... मुझे यु न चुभे होते.....