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मन की बात मन से (स्त्री)

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  रोज अकेलेपन से लड़कर वो पहुंची देवों की देहरी पर सर पटक देवों से पूछा मेरा जीवन क्यूँ ऐसा? देव ख़ामोश बस सुनते रहे उसके मन की दशा फफक-फफक कर खूब रोई वो देवों के समीप जाकर देव फिर भी रहे खामोश कुछ न बोले। बस मूरत बन खड़े रहे वो बोलती रही अपने मन की हर बात। बोलते बोलते जब वो थक गई शान्त चित हो देवों के चरण में शीश नवा लौट आई घर। आज एक असीम ऊर्जा का विश्वास का स्रोत बह रहा था उसके मन में। क्योंकि वो अपने मन की हर बात देवों को बोल आई थी खुद की बाते खुद से कर आई थी। जो कोई नहीं सुन रहा था, कोई नहीं समझ रहा था। देवों ने चुपचाप सुन ली थी उसकी पुकार।

उर्वशी 3

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 रंगशाला के सारे रंग में नहाकर  उर्वशी पहुंची तपस्वी के पास मदमस्त नयनों से इशारा करती अटखेलियां करती अजंता के नर्तकों सी नृत्य करती लगी तपस्वी को रिझाने कभी कोयल सी गाती कभी बनमाला सी हंसती तो कभी राधिका बन जाती लगी मंदाकनी बन तपस्वी को रिझाने। पके गेंहू के बालियों सा तपस्वी फ़कीरी लिबास में लिपटा खोया था प्रभु के सुमिरन में न देखा उसने न सुना उसने उर्वशी को तपस्या करते-करते घास का एक तिनका उठा लगा उर्वशी श्राप देने पर जैसे ही आंखे खोली मंत्रमुग्ध हो गया सम्मोहित हो गया रहा न कुछ और ख़्याल उसको बहक गया उर्वशी संग वो। सारी तपस्या धरि रह गई जब अप्सरा मिली उसको।। हमारे यहाँ आज भी ऐसा ही होता है हम अक्सर अपने पथ से भटक जाते है, भोग-विलास में लिप्त हो अपना जीवन  नष्ट कर लेते है। हमें हर चीज में सामन्जयस करना आना चाहिए। जैसे बरखा की बूंदे बदन भी भिगोती है और सुखी जमीं भी सींचती है। जहाँ जैसी जरूरत वहाँ वैसी होती है। हमें भी बस बरखा की बूंदों सा होना चाहिए।

बूढ़ी काकी और नीम

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  सुबह गइया बांधी नीम तले फिर उपले सुखाए नीम तले धुले बाल सुखए नीम तले शाम तक हर काम किया नीम तले रात तक वो खुद हो गई नीम रिश्तों को सहेजते सहेजते उम्र बीत गई  पर उसका कड़वापन न गया अब खटिया पर नीम तले लेटी काकी बहुओं को देती है प्रवचन नीम से सबके जबान को कर देती है खारा निम्बोली खिला। जो पाया वही दे रही सबको नीम।

चंद्राकार घाव (इंतज़ार)

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  "डाली से तोड़कर फूल कुचलते नहीं है, लहू का रंग हाथों पर मसलते नहीं है।" पैरों के नीचे धूल बहुत है.. आंखों में तिनके चुभ रहे है.. रक्तरंजित शरीर से खून बह रहा है.. बेजान आत्म चुपचाप प्रश्नों के छल में उत्तर ढूंढ़ रही है। पलाश से अंगारे मन में जल रहे है रात्रितिमिर का खुरदरापन यादों संग.... आंखों से तकिये पर झर रहा है। कौतूहल व्याप्त हो जाता है ज्यों ही तुम मेरी कल्पना में व्याप्त हो जाते हो।

मन का कोलाहल (स्त्री)

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  ऊपर पत्थर अंदर नर्म हृदय हूँ मैं पंचतत्वों से उपजी एक नारी हूँ मैं गगरी भीतर पानी, बाहर ज्वाला सी हूँ मैं हर धर्म में सराही जाती, हर धर्म का  खिलवाड़ भी बन जाती हूँ मैं। अंत्येष्टि से दूर रखा जाता कोमल समझ पर हर इंसान की जन्मदाता मैं ही हूँ। अनूठी है मेरी देह संरचना इसी संरचना के कारण कभी सती हुई, कभी पर्दे में रही, तो कभी बलात्कार कर जलाई गई। पर उफ़ तक न कि मैंने शायद यही वजह रहीे कि मैं दोयमदर्जे की नागरिक हो गई देवी स्वरूपा होकर भी। बहुत विदुषी हूँ मैं सनातन धर्म की पुजारन हूँ मैं मुझे भस्म न कर पाओगे चंदन की लकड़ी में दबा मेरा अस्तित्व न मिटा पाओगे मैंने केंचुली उतार फेंकी है अब मेरा सामना न कर पाओगे मैं आज की नारी हूँ मुझे फिर एक नया इतिहास लिखना है मुझे राख में न दबा पाओगे  हाँ! जिसे मैंने ही जन्म दिया तुम पुरुष!

नील-सूरज (छोटी प्रेम-वार्तालाप)

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  बाजार में घूमते हुए दोनो खूब सारी एक-दूसरे की पसंद की चीजें लेते है। वहाँ एक दुकान पर एक छोटी बच्ची बैठी थी जो उन दोनों को देखते ही बोल पड़ती है।ले लो साहब ये लाल-लाल चूड़ियां गोरी मैम के लिए। ये सुन नील शरमा जाती है। लेकिन सूरज बहुत खुश होता है। वो दोनो चीजे खरीद होटल पहुंच जाते है। और खाने का आर्डर दे बिस्तर पर धम.. से पड़ जाते है। सूरज~नील तुम्हारा प्रेम  अतल से फूटता जलस्रोत है मेरे लिए। मेरी अभिलाषाओं का आश्रय स्थल। हाँ! जहाँ हर शब्द में तुम मुझे गूंथ देती हो एक सिरा खुद पकड़ एक सिरा मुझे पकड़ा देती हो। और समय से बंधी मुझ से आ बंध जाती हो। नील तुम दहकती हो महकती हो मचलती हो मेरे होंठो पर सज मेरे रोम-रोम में खिल जाती हो। मेरी प्यारी नील... तुम शब्द हो, मैं तुम्हारा अर्थ हूँ। मैं शब्द हूँ, तुम मेरा अर्थ हो। ये बोल सूरज नील को घँटों बांहो में लिए बैठा रहता और नील उसकी बांहो में ही ख़यालों में खो जाती। उसकी हो जाती। घूमने जाने से पहले दोनों आईने के सामने एक साथ तैयार होते। कई बार सूरज नील को आईने के सामने ऐसे देखता की नील शर्म से पूरी लाल हो जाती और अपनी पलकें झुका लेती तो सूरज उ...

जलता चूल्हा

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  किस चूल्हे पर दिन रखूं.. किस राख में रात दबाऊं.. जिंदगी तो धूप में सिक गई.. अब तो बस खुरचन बची है.. तमाम दिन और रात की..। खुरचन भी जली हुई है चूल्हे पर.. अब ये किसी का निवाला नहीं.. न किसी की तृप्ति.. बस अतीत में खोई.. खुद को ढूंढ रही है.. भरी परात में झांक..। ज़ख्म ये बहुत पुराना है.. जिंदगी की भट्टी में जल.. काला हुआ है..। एहसास बोझिल.. आवाज धीमी.. मन भारी हुआ है..। तमाम दिन, तमाम राते.. अब खुद का हिसाब लगा रही है.. सलवटों में खुद को तलाश रही है..। कांच के फ्रेम पर उंगलियां फिरा अतीत में झांक रही है। दिन चूल्हे में, रात राख में.. जिस्म मर्तबान में बंद हो तड़प गया..। परम्पराओं को ढोती.. उजली स्त्री...काली हो.. वक्त की शूली पर.. बेवक़्त काल का ग्रास हो.. राख हुई..!!