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जलता चूल्हा

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  किस चूल्हे पर दिन रखूं.. किस राख में रात दबाऊं.. जिंदगी तो धूप में सिक गई.. अब तो बस खुरचन बची है.. तमाम दिन और रात की..। खुरचन भी जली हुई है चूल्हे पर.. अब ये किसी का निवाला नहीं.. न किसी की तृप्ति.. बस अतीत में खोई.. खुद को ढूंढ रही है.. भरी परात में झांक..। ज़ख्म ये बहुत पुराना है.. जिंदगी की भट्टी में जल.. काला हुआ है..। एहसास बोझिल.. आवाज धीमी.. मन भारी हुआ है..। तमाम दिन, तमाम राते.. अब खुद का हिसाब लगा रही है.. सलवटों में खुद को तलाश रही है..। कांच के फ्रेम पर उंगलियां फिरा अतीत में झांक रही है। दिन चूल्हे में, रात राख में.. जिस्म मर्तबान में बंद हो तड़प गया..। परम्पराओं को ढोती.. उजली स्त्री...काली हो.. वक्त की शूली पर.. बेवक़्त काल का ग्रास हो.. राख हुई..!!

मौत

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कितना अच्छा होता जो तुम आ जाती रात मिल जाता शायद कुछ चैन मेरी रूह को पर तुम नही आई। पूरी रात मैंने तुम्हारा इंतज़ार किया। लेकिन तुम नहीं आई। यू ही पूरी रात गुजर गई, और फिर एक सुबह बिन बुलाए मुझे रुलाने आ गई। अब कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। बस हर पल मौत तुम्हारा इंतज़ार रहता है। ये जो बेतरतीब बीहड़ सी जिंदगी है न यहाँ हर मोड़ पर काँटों भरी बाड़ लगी है। जिससे बच पाना नामुमकिन सा है। कैसे छलनी हो गया है मेरा हृदय जहाँ न कोई आस बची है न कोई उम्मीद मौत अब बस तू अपनी सी लगती है। चल आ जा जल्दी से और मुझे अपने गले से लगा ले जिंदगी में खुशियों की तमाम कोशिशें अब धूमिल सी हो गयी है।  हर रास्ता बंद, और मंजिले खो गयी है। सफ़र जिंदगी का अब कटता नहीं, वक़्त गुजरता नहीं  आँखों में काली स्याही से भरे पन्ने आँखों को मटमैला लाल करते है।  और यु ही डबडबाई आँखों में सागर की लहरें ला छोड़ देते है। ये लहरें इतनी नमकीन है कि मेरा पूरा बदन खारा हो गया है। मौत तू आयेगी जरूर पर तड़पा तड़पा कर है न तू क्यूँ इतने नख़रे दिखा रही है।  चल आ भी जा और नख़रे न दिखा।  मुझे अपने साथ ले जा मेरा वादा है तुझसे मैं तुझे परेशान नहीं करुँगी,

उर्वशी 2 (अप्सरा)

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  पारदर्शी आँखों में ख़्वाब समेटे मैंने तुम्हारे लिए रुमाल के कोनों पर रेशमी गट्टी के धागों से कढ़ाई कर सुर्ख रंग के गुलाब उकेरे है। मेरी हथेली की गर्माहट वहाँ छुपी है। तुम चाहो तो ये गर्माहट महसूस कर लेना। सुनों तपती दुपहर भर मैंने शब्द चुन चुन एक टोकरी भर गज़ल लिखी है तुम चाहो तो  ये ग़जरे सी गजल सुन लेना मेरे इंतजार की तड़प, आँखों की बरसात होंठो की चुप्पी, बेबसी सब खुद महसूस कर लेना। सुनों ये आँखे झूठ नहीं बोलती है होंठ यूं ही सिसकियों में तुम्हें नहीं पुकारते है। ये तुम्हारी बंदगी करते है  खुदा सी, माला जपते है ईश्वर सी। तुम चाहो तो ये आँखे पढ़ लो मुझे बिना बताए। सुनों ये सांसों की बैचेनी गुमसुदा रातों की तड़प अधरों की बेताब मुस्कान बदन से लिपटा यौवन सब तुम्हारे लिए है। ये सारा मिठास एक नदी में बह रहा है तुम चाहो तो बांध बांध लो अपने लिए। सुनों काले काले मोतियों की माला पिरो रही हूँ तुम चाहो तो पहना देना। पूर्णिमा की रात ये इश्क़ पूर्ण कर देना।

सांसों के पिंजरे में कैद जिंदगी

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 कुछ कड़वी, कुछ खट्टी, कुछ मीठी, रेगिस्थान में भटकते रेत सी जिंदगी। कभी आँधियों में उड़ती रेत सी जिंदगी, सांसो के पिंजरे में कैद जिंदगी, तड़पती है....घुटती है.....मचलती है......रोती है......पर मौत नसीब नहीं। दफ़्न ख्वाइशों की जिंदा मिशाल बन अश्क़ो में बहती है। सिसकती है।  ऐ जिंदगी तू हमें इतना क्यूँ रुलाती है। ऐ जिंदगी हमें इतना क्यूँ तड़पाती है। हम तो तेरे गुलाम है।  एक हँसी को हमें इतना क्यूँ तड़पाती है।  ऐ जिंदगी जिस्म को तो आदत है, नंगे पांव अंगारों पर चलने की। पर रूह अश्क़ो में पिघल कर रोती है, तड़पती है।  चैन की तलाश में बैचेनियाँ पलती है।  ख्वाइशों के दंगल में उम्मीदें तड़पती है। एक सिरहन सी उठती है। एक आह सी निकलती है।  और नम आंखो के किनारे कुछ मोती आ लुढ़क जाते है।  कुछ कोनो पर ठहर जाते है। कुछ होठों की अंदर घुट मर जाते है। कुछ रूह को मार जिंदगी जीते है।  कुछ वक़्त के हाशिये पर मिट जाते है। ऐ जिंदगी तू ऐसी क्यूँ है, ऐ जिंदगी तू ऐसी क्यूँ है??

रिश्तें.....

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  रिश्तें भावनात्मक आदान-प्रदान पर टिके होते है। इसे नफा-नुकसान पर नहीं तोला जा सकता है। मान-सम्मान, ईमानदारी, प्रतिबद्धता, सहानुभूति, सहयोग, स्वीकृति  सब किसी भी रिश्तें में जरूरी होते है। लेकिन संचार और संवाद हर रिश्ते की रीढ़ है। आजकल अधिकतर रिश्ते समझौते पर टिके होते है जहाँ न खुशी होती है न कुछ और बस दिखावा होता है अपनेपन का। आधुनिकता के रंग में रंगे हम सब इंसान कम पशु ज्यादा हो गए है।  एक कविता ------रिश्तें दिन सुलझा नहीं कि रात हो गई फिर ख़ामोश दीवारों से बात हुई रोटी अनमनी सी पेट में गई रौब जमाती टीवी आंखों के सामने आई  एक उम्र को सामने देखा बिल्कुल मुझ जैसी ही थी थके हाल, सामने विचारों का मायाजाल दुनिया भर के खेल-तमाशे आंखों के सामने फिर भी सूनापन घर में समाए हृदय विहीन रिश्तें बुत बने ताकते न आवाज देते  न आवाज सुनते सुलझते ही नहीं ये वर्षों के झमेले। गलती किसकी कौन जाने इस भूल-भुलैया से  कैसे बाहर निकले इस चंचल मन को  कैसे समझाए जिंदगी एक मेला है मौत न आये ये तब तक का खेला है।।

प्रेमपत्र

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 प्रेमपत्र नेह की छांव में कुछ मुट्ठीभर शब्द  कागज़ पर बिखेर रही हूँ। तुम जी भर पढ़ना  ये शब्दों की पियानो पर बजती प्रेमल धुन। धुन सुन तुम  रुमानियत से भर जाना और खोल देना सारे खिड़की-दरवाज़े अपने कमरे के मेरे एहसास की ज़ाम पीने के लिए। और अपनी सारी पीड़ा फूंक मार उड़ा देना  खिड़की के कोने से बाहर। फिर देखना तुम कितने हल्के हो जाते हो, मेरी इस धुन को सुनकर  जो सिर्फ तुम्हारे लिए बजती है मेरे इस दिल में हर सुबह-शाम। शब्द पढ़ तुम पावन मास बन जाना मेरे त्योहारों के लिए। या बन जाना दहकते पलाश मुझे रंगने के लिए चटख रंगों से। ये आसमान की अटारी से उतरे शब्द है.. सुबह की बेला में लिखे शब्द है.. ये धूप-छांव समेटे शब्द है.. ये वसंत का उपहार गहरे मख़मली सेमल से सुंदर शब्द है। तुम्हारीे स्मृति में सजने को उत्साहित है। गीतों में ढलने को उत्साहित है। जीवन में जुड़ने को उत्साहित है। ये गहरे सौम्य शब्द सिर्फ तुम्हारे लिए।

उर्वशी. (अप्सरा)

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  शुभ संकल्पों के श्वेत पुष्प  मैंने गीली मिट्टी में बो दिए है। अब देखना इसमें से मोती झरेंगे मेरे आँचल में सिर्फ तुम्हारे लिए। मेरी स्मृति में सिर्फ तुम बस्ते हो  मनमोहक संगीत जैसे... पवन बीच उड़ती सुगंध जैसे। सुनों तुम बहुत अच्छे हो क्यारियों में खिले गुलाब जैसे हो बारिश में अलगनी पर टँगी बूंदो जैसे हो जिसे मैं एकटक निहारती रहती हूँ बावली बन सकुचाती पलकों से। सुनों मालती के फूल महक रहे है आसमान से अमृत बरस रहा है पत्तों पर बूंदों की पायल बज रही है तुम मेरे माथे पर लाल बिंदी सजा दो न अपने होंठो से। सुनों बाहर जलतरंग बज रहा है बेला की डाल झूल रही है मीठा सा एहसास हिलोरे मार रहा है तुम बारिश संग कच्ची धूप बन आ जाओ मुझे इस सुनहरे एहसास में भीगना है उर्वशी बन।।