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नया रंग

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सुनों~~ तुम मेरा वही नया रंग हो जो अभी-अभी सर्द मौसम ने ओढा है, गुलदावदी का। हज़ारे ने ओढा है, ताजगी का। नील गगन ने ओढा है, नर्म धूप का। ये नया रंग कितना सुंदर है। सुनों~~सुनों न~~ पुरानी धरा पर एक नया रंग खिला है, तुम्हारे मेरे प्रेम का। बनमाला की थोड़ी पर जैसे गुदा हो, दो हंसों का जोड़ा। सुनों तुम ये मनभावन, मदमस्त,  कुदरती नज़ारे देख रहे हो न ये सब प्रेम की सुगंधित तस्वीरे है। फूलों के गाल पर लिखी सुर्ख तहरीरें है। ताजे गुलाब पर पड़ी ओस की बूंदे है। सुनो सुनों न~~ शाल लपेटे सर्दियां आ गई है। तुम ऊन ला दो न मुझे तुम्हारे लिए स्वेटर बुनना है... हर रंग का धागा इसमें लपेटना है... हर फूल इस पर खिलाना है... एक सुनहरा रिश्ता इसमें जोड़ना है... तुम्हारे मेरे प्रेम का। नर्म पत्तियों पर जैसे सुनहरी धूप खिल रही हो, इस सर्द मौसम में। इस गुलाबी मौसम में। इस प्रेम मौसम में।

समझौते का बोझ

 समझौते का बोझ __________________ स्त्रियां सदैव उठाती है एक बोझ समझौते का बोझ। स्वाभिमान को मार अपनाती है अदृश्य बेड़िया परिवार, समाज की खातिर। तभी तो सीता की उपाधि पाती है? और अंत तक देती है अग्नि परीक्षा अपने वजूद की तलाश में सिसकियों में जीवन व्यतीत कर।

मन की बात मन से (स्त्री)

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  रोज अकेलेपन से लड़कर वो पहुंची देवों की देहरी पर सर पटक देवों से पूछा मेरा जीवन क्यूँ ऐसा? देव ख़ामोश बस सुनते रहे उसके मन की दशा फफक-फफक कर खूब रोई वो देवों के समीप जाकर देव फिर भी रहे खामोश कुछ न बोले। बस मूरत बन खड़े रहे वो बोलती रही अपने मन की हर बात। बोलते बोलते जब वो थक गई शान्त चित हो देवों के चरण में शीश नवा लौट आई घर। आज एक असीम ऊर्जा का विश्वास का स्रोत बह रहा था उसके मन में। क्योंकि वो अपने मन की हर बात देवों को बोल आई थी खुद की बाते खुद से कर आई थी। जो कोई नहीं सुन रहा था, कोई नहीं समझ रहा था। देवों ने चुपचाप सुन ली थी उसकी पुकार।

उर्वशी 3

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 रंगशाला के सारे रंग में नहाकर  उर्वशी पहुंची तपस्वी के पास मदमस्त नयनों से इशारा करती अटखेलियां करती अजंता के नर्तकों सी नृत्य करती लगी तपस्वी को रिझाने कभी कोयल सी गाती कभी बनमाला सी हंसती तो कभी राधिका बन जाती लगी मंदाकनी बन तपस्वी को रिझाने। पके गेंहू के बालियों सा तपस्वी फ़कीरी लिबास में लिपटा खोया था प्रभु के सुमिरन में न देखा उसने न सुना उसने उर्वशी को तपस्या करते-करते घास का एक तिनका उठा लगा उर्वशी श्राप देने पर जैसे ही आंखे खोली मंत्रमुग्ध हो गया सम्मोहित हो गया रहा न कुछ और ख़्याल उसको बहक गया उर्वशी संग वो। सारी तपस्या धरि रह गई जब अप्सरा मिली उसको।। हमारे यहाँ आज भी ऐसा ही होता है हम अक्सर अपने पथ से भटक जाते है, भोग-विलास में लिप्त हो अपना जीवन  नष्ट कर लेते है। हमें हर चीज में सामन्जयस करना आना चाहिए। जैसे बरखा की बूंदे बदन भी भिगोती है और सुखी जमीं भी सींचती है। जहाँ जैसी जरूरत वहाँ वैसी होती है। हमें भी बस बरखा की बूंदों सा होना चाहिए।

बूढ़ी काकी और नीम

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  सुबह गइया बांधी नीम तले फिर उपले सुखाए नीम तले धुले बाल सुखए नीम तले शाम तक हर काम किया नीम तले रात तक वो खुद हो गई नीम रिश्तों को सहेजते सहेजते उम्र बीत गई  पर उसका कड़वापन न गया अब खटिया पर नीम तले लेटी काकी बहुओं को देती है प्रवचन नीम से सबके जबान को कर देती है खारा निम्बोली खिला। जो पाया वही दे रही सबको नीम।

चंद्राकार घाव (इंतज़ार)

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  "डाली से तोड़कर फूल कुचलते नहीं है, लहू का रंग हाथों पर मसलते नहीं है।" पैरों के नीचे धूल बहुत है.. आंखों में तिनके चुभ रहे है.. रक्तरंजित शरीर से खून बह रहा है.. बेजान आत्म चुपचाप प्रश्नों के छल में उत्तर ढूंढ़ रही है। पलाश से अंगारे मन में जल रहे है रात्रितिमिर का खुरदरापन यादों संग.... आंखों से तकिये पर झर रहा है। कौतूहल व्याप्त हो जाता है ज्यों ही तुम मेरी कल्पना में व्याप्त हो जाते हो।

मन का कोलाहल (स्त्री)

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  ऊपर पत्थर अंदर नर्म हृदय हूँ मैं पंचतत्वों से उपजी एक नारी हूँ मैं गगरी भीतर पानी, बाहर ज्वाला सी हूँ मैं हर धर्म में सराही जाती, हर धर्म का  खिलवाड़ भी बन जाती हूँ मैं। अंत्येष्टि से दूर रखा जाता कोमल समझ पर हर इंसान की जन्मदाता मैं ही हूँ। अनूठी है मेरी देह संरचना इसी संरचना के कारण कभी सती हुई, कभी पर्दे में रही, तो कभी बलात्कार कर जलाई गई। पर उफ़ तक न कि मैंने शायद यही वजह रहीे कि मैं दोयमदर्जे की नागरिक हो गई देवी स्वरूपा होकर भी। बहुत विदुषी हूँ मैं सनातन धर्म की पुजारन हूँ मैं मुझे भस्म न कर पाओगे चंदन की लकड़ी में दबा मेरा अस्तित्व न मिटा पाओगे मैंने केंचुली उतार फेंकी है अब मेरा सामना न कर पाओगे मैं आज की नारी हूँ मुझे फिर एक नया इतिहास लिखना है मुझे राख में न दबा पाओगे  हाँ! जिसे मैंने ही जन्म दिया तुम पुरुष!