संदेश

धीरज धरो ओ सजना

चित्र
  मैं प्रीत की डोरी तुम प्रेम की डोरी। मैं छलकता सावन तुम उमड़ते मेघ। मैं सौंफ, सुपारी तुम पान का बीड़ा। मैं सुहागन तुम सुहागसेज। मैं दुल्हन तुम दर्पण मेरे। मैं महलों की रानी तुम राजा मेरे ओ सजना धीरज धरो आई रे आई सजनी। तुम बरखा की बूंदे जो मुझमें ही रमे ये जाता दिसंबर ये आती जनवरी इसमें खिले ये सर्द सुहागन अपने पिया जी मे ही रमे ये वैदेही सी सजनी ओ सजना। धीरज धरो ओ सजना!!

वक्त की तासीर

चित्र
  वक्त की तासीर लाजवाब होती है। फूलों से लेकर महलों तक अपनी मौजूदगी दर्ज कराती है। बेरंग वक्त, हर रंग में घुलता है। हर मास में मुस्कुराकर पूरा साल ले उड़ता है। ये जाता साल ये आती जनवरी सर्द लिहाफ ओढ़े आती है। सबको उम्मीदों से भरा टोकरा थमा कर जाती है। वक्त की तासीर वैसे तो स्वादहीन, रंगहीन होती है। पर सबकी जबां पर चढ़कर बोलती है। ये एक सदी से दूसरी सदी में यूं ही भटकती रहती है। सबको बांधकर सबको आजाद भी करती है। सुनों ऐ वक्त कैसे पकड़ू तुम्हे तुम तो हवा से उड़ जाते हो पानी से बह जाते हो आग से जल जाते हो। पूरी धरा पर तुम बहकर आसमानी चाँद-सितारों में खो जाते हो। ऐ वक्त तुम भी कमाल करते हो सबको खुद के साथ ले उड़ते हो।।

विचारों का दंगल

चित्र
  विचारों का दंगल कितने का दंगल कभी स्याह तो कभी प्रेममय होता है, तो कभी बहुत साधारण। विचार सकारात्मक और नकारात्मक दोनों से गुंथे होते है।  विचार आपके व्यक्तित्व का प्रदर्शन तो करते ही है साथ ही साथ आपकी संवेदना को भी व्यक्त करते है। कुछ खोने और पाने के बीच होता है "द्वंद" वो द्वंद आपको असहाय करता है, पर यक़ीन माने इस द्वंद से ही आपमें साहस भरता है मौजूदा स्थिति से लड़ने की ताकत मिलती है। आप नहीं जानते आपमें कितनी संवेदना भरी है आप कितने साहसी है आप खूबियों से भरपूर है, तभी तो इतनी उलझन है।  जिसमे संवेदना नहीं होती वो बस दूसरों के हिसाब से चलता है। उसका खुद का कोई व्यक्तित्व नहीं होता है। डर हमेशा भविष्य को लेकर होता है। भूत तो बीत चुका है वो बस विचारों में उलझाता है। विचार शब्दों से आते है। बिना शब्द के विचार नहीं आ सकते है। नकारात्मक विचार हमेशा ज्यादा आते है हम यही सोचते है और ऐसा होता भी है। पर विचार तो विचार है आते जाते रहते है। हमारे मस्तिष्क में इसका निर्माण होता रहता है। यही एक स्वस्थ व्यक्ति की पहचान भी है।

नया रंग

चित्र
सुनों~~ तुम मेरा वही नया रंग हो जो अभी-अभी सर्द मौसम ने ओढा है, गुलदावदी का। हज़ारे ने ओढा है, ताजगी का। नील गगन ने ओढा है, नर्म धूप का। ये नया रंग कितना सुंदर है। सुनों~~सुनों न~~ पुरानी धरा पर एक नया रंग खिला है, तुम्हारे मेरे प्रेम का। बनमाला की थोड़ी पर जैसे गुदा हो, दो हंसों का जोड़ा। सुनों तुम ये मनभावन, मदमस्त,  कुदरती नज़ारे देख रहे हो न ये सब प्रेम की सुगंधित तस्वीरे है। फूलों के गाल पर लिखी सुर्ख तहरीरें है। ताजे गुलाब पर पड़ी ओस की बूंदे है। सुनो सुनों न~~ शाल लपेटे सर्दियां आ गई है। तुम ऊन ला दो न मुझे तुम्हारे लिए स्वेटर बुनना है... हर रंग का धागा इसमें लपेटना है... हर फूल इस पर खिलाना है... एक सुनहरा रिश्ता इसमें जोड़ना है... तुम्हारे मेरे प्रेम का। नर्म पत्तियों पर जैसे सुनहरी धूप खिल रही हो, इस सर्द मौसम में। इस गुलाबी मौसम में। इस प्रेम मौसम में।

समझौते का बोझ

 समझौते का बोझ __________________ स्त्रियां सदैव उठाती है एक बोझ समझौते का बोझ। स्वाभिमान को मार अपनाती है अदृश्य बेड़िया परिवार, समाज की खातिर। तभी तो सीता की उपाधि पाती है? और अंत तक देती है अग्नि परीक्षा अपने वजूद की तलाश में सिसकियों में जीवन व्यतीत कर।

मन की बात मन से (स्त्री)

चित्र
  रोज अकेलेपन से लड़कर वो पहुंची देवों की देहरी पर सर पटक देवों से पूछा मेरा जीवन क्यूँ ऐसा? देव ख़ामोश बस सुनते रहे उसके मन की दशा फफक-फफक कर खूब रोई वो देवों के समीप जाकर देव फिर भी रहे खामोश कुछ न बोले। बस मूरत बन खड़े रहे वो बोलती रही अपने मन की हर बात। बोलते बोलते जब वो थक गई शान्त चित हो देवों के चरण में शीश नवा लौट आई घर। आज एक असीम ऊर्जा का विश्वास का स्रोत बह रहा था उसके मन में। क्योंकि वो अपने मन की हर बात देवों को बोल आई थी खुद की बाते खुद से कर आई थी। जो कोई नहीं सुन रहा था, कोई नहीं समझ रहा था। देवों ने चुपचाप सुन ली थी उसकी पुकार।

उर्वशी 3

चित्र
 रंगशाला के सारे रंग में नहाकर  उर्वशी पहुंची तपस्वी के पास मदमस्त नयनों से इशारा करती अटखेलियां करती अजंता के नर्तकों सी नृत्य करती लगी तपस्वी को रिझाने कभी कोयल सी गाती कभी बनमाला सी हंसती तो कभी राधिका बन जाती लगी मंदाकनी बन तपस्वी को रिझाने। पके गेंहू के बालियों सा तपस्वी फ़कीरी लिबास में लिपटा खोया था प्रभु के सुमिरन में न देखा उसने न सुना उसने उर्वशी को तपस्या करते-करते घास का एक तिनका उठा लगा उर्वशी श्राप देने पर जैसे ही आंखे खोली मंत्रमुग्ध हो गया सम्मोहित हो गया रहा न कुछ और ख़्याल उसको बहक गया उर्वशी संग वो। सारी तपस्या धरि रह गई जब अप्सरा मिली उसको।। हमारे यहाँ आज भी ऐसा ही होता है हम अक्सर अपने पथ से भटक जाते है, भोग-विलास में लिप्त हो अपना जीवन  नष्ट कर लेते है। हमें हर चीज में सामन्जयस करना आना चाहिए। जैसे बरखा की बूंदे बदन भी भिगोती है और सुखी जमीं भी सींचती है। जहाँ जैसी जरूरत वहाँ वैसी होती है। हमें भी बस बरखा की बूंदों सा होना चाहिए।