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अगस्त, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

परछाई.........!!!

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अब अक्सर सोचती हूँ, तुम्हारा मेरा रिश्ता क्या था। शायद कुछ नहीं। तभी तो मेरे बदन में दर्द की गांठे बुन, पलकों पर अश्रुधार छोड़ कर चले गए। मेरा अस्तित्व ऐसा नहीं था। जो तुमनें कर दिया। मेरी किताब के पन्नों पर, तुमनें गीली..मोतियों की माला सजा दी। मैं पता नहीं किस मिट्टी की बनी हूँ, जो आँधियों में रेत सा उड़ा देता है, उसे ही संवारने लग जाती हूँ। प्रेम की डोरी में रूह के मोती पिरो देती हूँ। पता नहीं किसे संजो रही हूँ, खुद को या उसे जो सब जानकर अंजान है। जिस्मों का सौदागर, मेरी रूह का तलबगार है। या उसे जो मेरा कान्हा जैसा है। वो भरी बरसात में रुलाता है, जो रोऊ तो आंखे दिखाता है। मेरे लबों की हँसी छीन, मुझे हँसाने की कोशिशों में लगा रहता है। पर अब ये आंसू मेरे संगी-साथी, मेरी हँसी में भी मेरा पीछा नहीं छोड़ते, हमेशा मेरा साथ निभाते है। मेरी परछाई बनकर, मेरे अपने बनकर!!!

बहता दर्द पहाड़ो का........!!

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दर्द है जो अब तक रिस रहा है, जख़्म होता तो कब का गया होता। पहाड़ो का दर्द है, बंजर जमीं में दफ़्न हो रहा है। पथरीली राहो की चोट है, जो रक्त बह रहा है। जिन्दगी का अनुभव है, जो धीरे-धीरे थिरक रहा है। लबों का शिकवा है, जो अंजान राहों पर गिर रहा है। रात सो रही है, ख़्वाब गुल्लक फोड़ फैल रहा है। वक्त के पायदान पे वक्त फिसल रहा है। काली रातो का उजला सच बह रहा है। जिस्मों के टांके सांसो में कांप रहे है, ख्यालातों में भी दर्द रो रहे है। आसमां से गिरती चान्दनी में, जख़्मी दिल क्या गा रहा है। शायद मधुर धुंन में, कोई पुराना राग अलाप रहा है। पहाड़ो का उजला संगीत, बेदाग बह रहा है। चमकीला झरना, ज़मी की प्यास बुझा निर्मल हो रहा, पावन हो रहा है!!!

आज एक अजनबी बहोत याद आ रहा है....!!

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आसमां से बादलों का शोर गिर रहा है...। बरखा की बूंदों में मेरा मन भीग रहा है...। आंगन में झील उतर आई है...। उसमें कागज़ की किस्तियाँ चलाने का मन कर रहा है...। कमरे की छत से टपकती बूंदो में संगीत सुनाई दे रहा है...। आज एक अजनबी बहुत याद आ रहा है...। सागर समेटे मन में तूफान ला रहा है...। मेरे कदमों के नीचे खुद के पद्चिन्ह बिछा रहा है...। मेरे उम्मीदों के बक्से में खुद की उम्मीदें दबा रहा है...। मेरी बेचैनी में खुद के ख़्यालात भर रहा है...। मेरे नश्वर शरीर में खुद की आत्मा भर रहा है...। मेरे जन्म-जन्मांतर की पहेली में......... ये क्यूँ? आ रहा है...। न किया था मैंने कोई वादा इससे...... ये फिर क्यूँ? आ रहा है...। क्यूँ? आ रहा है...!!!

रक्त-मिश्रित आंसू......!!!

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आँखों से रक्त-मिश्रित नीर बह रहा है। भावनाओं के समुन्दर में मन तड़प रहा है। हर दृश्य में तू आ रहा है। साँसों की गंध में भी तू समा रहा है। हँसी की आड़ में पलकों से मोती ढलक रहे है। आँचल के सितारों में जा छिप रहे है। हृदय का हर कोना निर्जन-घाटी हो रहा है। आंगन के सन्नाटे में यु ही डोल रहा है। यादों का हर पन्ना तेरा विवरण मांग रहा है सर्द हवाओं में जख़्म सा कुरेद रहा है। मेरी छुअन को मेरे आंगन का गुलाब तड़प रहा है। पर घाटी से उतरती धुप में रो रहा है। मेरी झुंझलाहट में भी तू आ रहा है। नैनो से गिरती जलधारा में भी नजर आ रहा है। जंगल की अमरबेल सा मेरे जीवन में क्यूँ छा रहा है। पागलों सा मेरे माथे पर क्यूँ नाच रहा है। तेरा नाता तो बता क्या है? मुझसे जो ये बार-बार, आ-जा रहा है। वक्त की करवट में, मुझे क्यूँ सता रहा है। मेरी हर आहट में क्यूँ आ रहा है। मेरी नजरों से गिरती पीड़ा में क्यूँ आ रहा है। मुझे ख़्वाबो में भी क्यूँ रुला रहा है। क्यूँ रुला रहा है!!!

इंतजार...........

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मेरे पलकें झपकाते ही... मेरे सामने आकर क्यूँ खड़े को जाते हो?? तुम क्या जताना चाहते हो? की मैं तुम्हें भूल गई, या तुम मुझे भूल गए... तुम्हारी यादों में मैं थी ही कहाँ? जो तुम मुझे भूलते... लेकिन मेरी सांसो में तुम प्राणवायु से घुल गये हो... अब सांसे जुदा होंगी तभी तुम जुदा हो पाओगे...। कितने बुद्धिमान हो तुम? जो ये इश्क़ भी सोच-समझ कर जाँच-परख कर करते हो... और मैं पागल यु ही दिल लगा बैठी... अब भुगत रही हूँ इसकी सजा...! आजकल कोई अहसास भी नहीं होता है...। कब दिन निकलता है...कब रात होती है...। मेरी जिंदगी तो बस...यु ही गुजर रही है...। तुम्हारी यादों में कविता लिखते हुए... मैं संघर्षरत नन्हा पौधा, तुम विशाल स्तम्भ...! मैं कैसे तुम्हें आलिंगन में बांध पाती? सोचो जरा... तुम दुनिया वालों के धोखो से परेशान थे...। शायद इसलिए मेरी मुस्कान पर भी तुमने शक़ किया...बोलो जरा क्यूँ? तुम चाहतों की दुनियां के बेताज बादशाह...! मैं कंपकपाती मृदु स्पर्श... मैं तुम्हारी सहृदयता और ईमानदारी से, बेहद प्रभावित हुई थी...। पर तुम जिंदगी का स्वाद लेने में सब भूल बैठे थे...। मैं जब भी तुम्ह...

आजकल... कहाँ रहते हो.....???

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आजकल कहाँ रहते हो... आंखे मूंद सब पर भरोषा क्यूँ कर लेते हो... तुम्हें न कोई समझ पाया है न समझ पायेगा... क्योंकी तुम सरल नहीं हो...। जिंदगी की भीड़ में कभी नीम तो कभी शहद हो... समझौते भी करते हो, बिना समझौते के... हर किरदार में ढलते हो... हर आकार-प्रकार में संवरते हो... पर माथे पर आई लकीरें कहाँ मिटा पाते हो... दिल को छूने वाली श्यारियाँ भी लिखते हो... राजनीति भी खूब जानते-समझतें हो... हर उत्तर में बहस बहुत करते हो... पर प्रश्न सोच-समझ कर करते हो... खुद में उलझे हो... पर उलझनों को स्वीकार नहीं करते... रगो में खून दौड़ा विरोध प्रदर्शित करते हो... कंटीली झड़ियों में अटक जिस्म छलनी करते हो... और हँस कर सबको भ्रमित भी करते करते हो... तुम्हें कौन समझ पाया है...। न कोई समझा है, न समझ पायेगा...। तुम कमलगट्टे से हो... तो कभी गुलाब पर पड़ी ओस की बूंद से... तो कभी कंटीली झाड़ियों पर लगे बेर से... तुम किसी के हो नहीं पाते... कोई तुम्हारा हो नहीं पता... जीवन नैया को यु ही लहरों पर चलाते हो... एक मोती की आस में... सागर को हथेली पर लिए बैठे हो... आँखों में हजार सपने... होठ...

काश.... तुम मुझे न मिले होते.....!!!

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काश.... तुम मुझे न मिले होते.... मन को पलाश सा दहका.... गुलाब सा महका.... निर्जन टापू पर छोड़ दिया तुमनें....।। मन में स्नेह की लता रोप.... करुणा से सींच.... प्रलय की आँधी में झोंक दिया तुमनें....।। गोधुली बेला के प्रणय सा मिल.... मन में ख्वाइशों का दंगल ला.... हिम पर्वत में फिर से दफ़ना दिया तुमने....।। आँखों को काले-बादलों के.... नियम-कायदे सिखा.... बिन मौसम बारिशों के तोहफे से सज़ा दिया तुमनें....।। नीले आकाश में उड़.... पृथ्वी की अपार वेदना को.... मात्र कुछ शब्दों की जलधारा से शांत करना चाहा तुमनें....।। तुम्हारा प्रेम छन-भंगुर था.... जो जिस्म की ज्वालामुखी में शांत हो गया.... मेरा प्रेम हरसिंगार के फूलों सा था.... जो अब भी झर रहा है....।। खारे पानी की झील में.... मैं अब भी वंसी-तट की नदियां सी बह रही हूँ....।। पर तुम सदाबहार के फूल बन.... अब भी सुदूर अफ्रीका के वनों में.... भटकते से प्रतीत हो रहे हो....।। जीवन अग्नि में प्रभातफेरी.... लगाते से प्रतीत हो रहे हो....।। काश.... तुम मुझे न मिले होते.... तो मेरे नुकीले-अस्थि.... मुझे यु न चुभे होते.....

तुम्हारे इंतजार में खुद से बातें करती मैं.....

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अब तुम भी एक पाती लिख दो मेरे नाम.... बता तो दो मेरा कसूर क्या है। मैं मन की धुप में खड़ी हो... रोज तुम्हारा इंतजार करती हूँ। बिना नागा पर तुम अमावश के चाँद से गायब रहते हो। अक्सर आजकल तुम खुद से गुस्सा रहते हो या मुझसे... पता ही नहीं चलता कुछ भी... कितने बदल गए हो तुम... तपते वन में अकेला छोड़ कहाँ चले गए हो। मेरी आँखें तुम्हें ही ढूंढती रहती है। हर पल मैं कपोल-कल्पित बातें नही करती... जो महसूस करती हूँ वही बोलती हूँ। तुम मानो या न मानो ये तुम्हारी मर्जी... तुम मुझे गुलाब, मोगरा, केवड़ा, रात की रानी... के खुसबू से निर्मल और चटटानों से मजबूत लगते हो। तुम सोने से खरे, हीरे से विश्वशनीय, मोती से शांतिप्रिय... बारिश की बूंदों से धरती की प्यास बुझाते से लगते हो। तुम्हारा एहसास मुझे... धान के खेतों में उगी कनक की बालियों सा लगता है। जीवन निराशा में आशा की किरण सा लगता है...!!!

परिवर्तन ही सृष्टि नियम है......।।।

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कहते है....परिवर्तन ही सृष्टि है। आंनद में ही जीवन की अनुभूति है। ब्रह्मस्वरूप ज्ञान ही जीवन का अंधकार दूर कर सकता है। और विज्ञान, अध्यात्म, योग हमारे दिव्य चक्षु नेत्र खोलते है, जीवन जीने का सही मार्ग प्रशस्त करते है। फिर भी हम भटक जाते है। क्यूँ?? न जाने कितने "शायद" अपनेआप हमारी जिंदगी में आ जुड़ते है। अमावश का अंधेरा, और ये उनींदा आसमान हमारी उजास भरी आशाओं को क्यूँ लील लेता है। हम अपनी ही परछाई को पकड़ना चाहते है। मोह-पाश के बंधनों से मुक्त होना चाहते है। पर अपनी दृष्टि अपनी चाल नही बदलते, क्यूँ? हम प्रश्न खुद से करते है? और उत्तर किसी और से चाहते है। क्यूँ? हम अपने भीतर क्यूँ नहीं झांकते है। जिंदगी के नए आयाम क्यूँ नहीं तलाशते है। एक कहानी याद आ रही है.... आप सबको सुनाती हूँ.... **अमावश की अँधेरी रात में एक अँधा फकीर अपनेआप से बातें करता हुआ चल रहा था। अचानक किसी कोने से आवाज आई, 'बाबा दिन निकलने का इंतजार तो कर लेते।' "दिन.....?" फकीर हँसा, 'दिन और रात आँख वालों का फैलाया भरम है। महज एक भरम....मुझे रास्ता पार करने के लिए...

अब मैं तुम्हें भूलना चाहती हूँ.....???

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मेरी जिंदगी के रुपहले पर्दे पर तुम विराजमान क्यूँ हो गए हो? अब मैं तुम्हें भूलना चाहती हूँ। तुम्हारी आँखों में....... ये जो लाल कसीदाकारी है। इसमे दर्द की ध्वनि गूंजती सी लगती है। जैसे कोई नन्हा बालक गुस्से में चिल्लाता, मधुर स्वर में गूंज रहा हो। तुम मेंड़ों पर घास की पत्तियां बटोरना चाहते हो। पर हवा की सरसराहट सुन भाग जाते हो। तुम्हारी आत्मा में स्वरलहरी गूंजती है। पर तुम उसे बदन में दफ़नाते चलते हो। तुममें वृक्षों सी सहजता है। पर तुम दिमाग की सुन.... दिल को निट्ठला समझ फुटपात पर फेंक देते हो। तुम सूखे दरख्तों में भी फूल खिलाने की ताकत रखते हो। पर रात का जुगनू बन अपनी ताकत से खिलवाड़ करते हो। तुम आसमां के चाँद में.... वायलिन बजाना तो चाहते हो पर, उस चाँद की शीतलता से कांपते हो। तुम सौरमंडल की आभा से चमकते हो। पर तारों की निकटता में खुद से छल भी करते हो। तुम अंधरे को चीर सुबह तो लाते हो। पर खुद अँधेरे में जकड़े रहते हो। सुनों........ इसलिए अब मैं तुम्हें भूलना चाहती हूँ। तुम्हारी नजदीकियों में मेरी आह निकलती है। तुम मेरे ख़्वाबो में भी मत आया करो, मुझे मेरा त...

विहंगम दृश्य....!!!

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मेरा जिस्म पानी पर तैरता एक गांव सा है...। जिसमें दर्द के चश्में बहते है...। बिन मौसम नदी में तूफान आता रहता है...। रिश्तों को सींचते-सींचते... सब खाली-खाली सा हो गया है...। फिर भी खारा जलस्तर... बढ़ता ही जा रहा है...। प्राकृतिक सौंदर्य तो अब भी कायम है...। पर जिन्दगी की ऊष्मा कहीं पीछे छूट गयी है...। खुशियों का आश्चर्य मिश्रित अहसास होता रहता है...। नील गगन में उड़ा सीधा पाताल में फेंक दी जाती हूँ...। सारी उपलब्धियां गिना... पाई-पाई की मोहताज कर दी जाती हूँ...। मगरमच्छो के बीच कमल सा खिल शांत रहने का... विहंगम दृश्य समझ तारीफ की पात्र बना दी जाती हूँ...। छल-कपट से घिरी तेज लहरों में... मुरझाई पवन के झोंके सी तैरती रहती हूँ...। भारी वर्षा के बढ़ते जलस्तर में... शांत झील बन डूबते सूरज की लालिमा... से चमकती रहती हूँ...। तेज धारा में बह चटटानों से टकरा... शंख-सीपियों सी बिखर... रेतीले तट की शोभा बढ़ाती रहती हूँ...। अलविदा कहने की कोशिश में... रोज जीती जा रही हूँ... मुस्कुराती जा रही हूँ...!!!

बहुरूपये सी जिन्दगी......!!!

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बहुरूपये सी जिंदगी आज को परतों में उधेड़ कल को छिलने की  साजिश करती नजर आती है। आत्मा की चीत्कार को जबरन तन की भेंट चढ़ा  शांत करते है। जिंदगी को स्वादिष्ट बनाने के चक्कर में नीम का निबोला सा कर लेते है। तन को कोमलता से सजा काँटों की शैया पर सुलाते है। मर्मस्पर्शी स्थितियों में खुद को खुद के द्वारा छल उपहास का केंद्र बन जाते है। धर्म-निष्ठा आड़े आये तो अपनी संवेदना बदल लेते है। बड़ी सहजता से.... इसे नियति का खेल कहे या कुछ और.... जरूरत पड़े तो हम अपनी प्राणवायु भी बेच आते है। बिना मोल-भाव.... आदर्शों की बात करते है। पर अपना आत्मविश्वास भी खो बैठे है, इस जीवन की आपा-धापी में। भरोषा अब समय का रहा नहीं रंगमंच की कठपुतलियां बन नाचते फिरते है। बारिश की उम्मीद में बंजर ज़मी पर रात बीता लहलहाते फसल की सुबह का इंतजार करते है। अपने स्वर को कंठ में मार सुरीला होने का उद्धघोष करते है। अंगौछा बांध उत्तेजना में बहते है। आवश्यकता पड़े तो.... खुद का घाव  खुद नोंच लेते है। कोयल सी वाणी चाहिए, बाज़ सा हौसला, पर भेड़िये की खाल, ओढ़े...

फरेबी पिया......!!!!

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यादों के बस्ते में, तुम फरेबी पिया... मन में घूमते रहते हो...। आँखों में लहरें ला, साहिल पर रेत बिखेरते हो। घने देवदार से अकड़, मुस्कुराते रहते हो...। जिंदगी में रहस्य, रोमांच तलाशते रहते हो...। सर्पिली राहो पर, अनूठा सफ़र करते हो...। यहाँ-वहाँ की बातें कर, जिंदगियों को परखते रहते हो...। गहरे इश्क़ की वसीयत, दिल में छिपाये चलते हो...। आह से वाह की पंक्ति में, लाजवाब शब्द पिरोये चलते हो...। फरेबी पिया...... तू बड़ा रे.... हरजाई...... दिल का सौदाई.... माने न...माने न.... रंग-बिरंगी मौसमो...सा.... मेरे तन से लिपट गया रे.... बेरंग आँसुओ में.... लाल रंग बन बह गया रे.... बह गया रे....!!!

नैसर्गिक प्रेम भाव......

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अतीत की छाया, वर्तमान की धुप देखते-देखते कितना कुछ बदल गया....। चौमासे का सावन आया.... मेरे महबूब का संदेशा लाया.... उसके स्वभाव में प्रेम बसा.... मेरे स्वभाव में वो बसा.... मेरी हर पाती में.... उसका जिक्र होता है....। वो ही मेरा मीत,.... मेरा सखा होता है....। हमारा अहंकार परस्पर टकराता है....। एक-दूसरे से वाद-विवाद के बाद.... नैसर्गिक प्यार कर........... एक-दूसरे को बाँहो में सुलाते है....। चाँद-तारों की कहानी सुना.... थपथपाते है....। हमारा प्रेम........... किसी नाम किसी पैमाने का मोहताज़ नही.... बस अहसास की धारा में लिपट.... सोते है,.... जागते है....। दिन के हर पहर में.... बुँदे बन समाते है....। तस्वीर से बातें कर.... हकीक़त में सामने पाते है....। चुम्बनों की बौछार से.... एक-दूसरे को नहलाते है....। हर बंधन में बंधे.... हर बंधन से मुक्त.... प्रेम रस में पगे.... प्रेम की धारा में बह.... समाहित हो गए है....। अविभाजित हो गए है....!!!